बारह तपों को करते हैं जो, वन खंडादि में रहते हैं जो।
उपसर्गों को सहते हैं जो, परीषहों से न डरते हैं जो।।
अट्ठाईस मूलगुण पालते हैं जो, चौबीस परिग्रह रहित हैं जो |
पाप रूपी कीचड़ से दूर हैं जो, पुण्य रूपी फूल से विरक्त हैं जो ।।
शुद्ध भावों में केलि करते हैं जो, मुक्ति वधू को ही वरते हैं वो |
उनका ही आश्रय करते हैं हम, उन जैसा बनने तरसते हैं हम ।।
Artist: बाल ब्र. श्री सुमत प्रकाश जी
Source: बाल काव्य तरंगिणी