Mudhashtak । भगवतीदास जी कृत मूढ़ाष्टक

अथ मूढाष्टक लिख्यते ।

                   दोहा

चिन्मूरत चिंता हरन, पूरन वांछित आश ॥
अश्वसेन अंगज निलौ, नमूं जिनेश्वर पाश ॥ १ ॥
अपने शुद्ध स्वभावसों, करै न कबहू प्रीति ॥
लगे फिरहिं परद्रव्यसों, यह मूढनकी रीति ॥ २ ॥

              चौपाई( १६ मात्रा )

मूरख कहै ग्रन्थ पहिचानों । सांच झूठको भेद न जानों ॥
जो कुछ लिख्यो सोई मै मानों । मेरे हृदय यहै ठहरानो ॥३॥

धूप मांहि जो कहै अन्धेरा । सूरज अथवत होय सवेरा ।।
हिंसा करत पुण्य बहु होई | ऐसौ लिख्यो सत्य मुहि सोई ॥४॥

मा कहिकैं जो बांझ बखाने । कर्म न होय प्रकृति परमाने ॥
जो मोको उपदेशहि ऐसो । तो मैं कहूं सत्य सव तैसो ॥ ५ ॥

सांच त्याग जो झूठ अलापै । झूठे वचन सत्य कहि थापै ॥
हिरदै सून्य सुन्यों मैं सबही । नैक विवेक धरों नहिं कवही ॥ ६॥

ऐसे शून्य हिये जे प्रानी । ते कलियुगकी बनी निशानी ॥
तिनको देख दया मन धरिये | बाद विवाद कछू नहिं करिये ॥ ७।।

                  दोहा 

ज्ञानवंत सुन वीनती, परसों नाही काम ॥
अनुभव आतम रामको, ‘भैया’ लख निजधाम ॥ ॥ ८ ॥

इति मूढाष्टकं ।

रचयिता: पंडित श्री भैया भगवतीदास जी
Source: ब्रह्म विलास

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