मोक्षमार्ग प्रकाशक | Mokshmargprakashak

रचयिता - पंडित प्रवर टोडरमल जी

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पहला अधिकार (पीठबंध प्ररूपणा)


अथ, मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्र लिखा जाता है।

[मंगलाचरण]

(दोहा)
मंगलमय मंगलकरण, वीतराग-विज्ञान।
नमौं ताहि जातैं भये, अरहंतादि महान ।।१।।
करि मंगल करिहौं महा, ग्रंथकरनको काज।
जातैं मिलै समाज सब, पावै निजपद राज।।२।।

अथ, मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्र का उदय होता है। वहाँ मंगल करते हैं :-

णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।

यह प्राकृतभाषामय नमस्कार मंत्र है सो महामंगलस्वरूप है। तथा इसका संस्कृत ऐसा होता है :-नमोऽर्हद्भ्यः। नमः सिद्धेभ्यः, नमः आचार्येभ्यः, नमः उपाध्यायेभ्यः, नमो लोके सर्वसाधुभ्यः। तथा इसका अर्थ ऐसा है :- नमस्कार अरहंतोंको, नमस्कार सिद्धों को, नमस्कार आचार्योंको, नमस्कार उपाध्यायोंको, नमस्कार लोकमें समस्त साधुओंको। — इसप्रकार इसमें नमस्कार किया, इसलिये इसका नाम नमस्कारमंत्र है।

अब यहाँ जिनको नमस्कार किया उनके स्वरूप का चिन्तवन करते हैं :-

अरहंतों का स्वरूप

वहाँ प्रथम अरहंतोंके स्वरूपका विचार करते हैंः — जो गृहस्थपना त्यागकर, मुनिधर्म अंगीकार करके, निजस्वभावसाधन द्वारा चार घातिकर्मोंका क्षय करके — अनंतचतुष्टयरूप विराजमान हुए; वहाँ अनंतज्ञान द्वारा तो अपने अनंतगुण-पर्याय सहित समस्त जीवादि द्रव्योंको युगपत् विशेषपनेसे प्रत्यक्ष जानते हैं, अनंतदर्शन द्वारा उनका सामान्य अवलोकन करते हैं, अनंतवीर्य द्वारा ऐसी सामर्थ्यको धारण करते हैं, अनंतसुख द्वारा निराकुल परमानन्दका अनुभव करते हैं। पुनश्च, जो सर्वथा सर्व राग-द्वेषादि विकारभावोंसे रहित होकर शांतरसरूप परिणमित हुए हैं; तथा क्षुधा-तृषादि समस्त दोषोंसे मुक्त होकर देवाधिदेवपनेको प्राप्त हुए हैं; तथा आयुध-अंबरादिक व अंगविकारादिक जो काम-क्रोधादि निंद्यभावोंके चिह्न उनसे रहित जिनका परम औदारिक शरीर हुआ है; तथा जिनके वचनोंसे लोकमें धर्मतीर्थ प्रवर्तता है, जिसके द्वारा जीवोंका कल्याण होता है; तथा जिनके लौकिक जीवोंको प्रभुत्व माननेके कारणरूप अनेक अतिशय और नानाप्रकारके वैभवका संयुक्तपना पाया जाता है; तथा जिनका अपने हितके अर्थ गणधर – इन्द्रादिक उत्तम जीव सेवन करते हैं।

— ऐसे सर्वप्रकारसे पूजने योग्य श्री अरहंतदेव हैं, उन्हें हमारा नमस्कार हो।

सिद्धोंका स्वरूप :arrow_up:

अब, सिद्धोंका स्वरूप ध्याते हैंः — जो गृहस्थ-अवस्थाको त्यागकर, मुनिधर्मसाधन द्वाराचार घातिकर्मोंका नाश होने पर अनंतचतुष्टय स्वभाव प्रगट करके, कुछ काल पीछे चार अघातिकर्मोंके भी भस्म होने पर परम औदारिक शरीरको भी छोड़कर ऊर्ध्वगमन स्वभावसे लोकके अग्रभागमें जाकर विराजमान हुए; वहाँ जिनको समस्त परद्रव्योंका सम्बन्ध छूटनेसे मुक्त अवस्थाकी सिद्धि हुई, तथा जिनके चरम शरीरसे किंचित् न्यून पुरुषाकारवत् आत्मप्रदेशोंका आकार अवस्थित हुआ, तथा जिनके प्रतिपक्षी कर्मोंका नाश हुआ, इसलिये समस्त सम्यक्त्व- ज्ञान-दर्शनादिक आत्मिक गुण सम्पूर्णतया अपने स्वभावको प्राप्त हुए हैं, तथा जिनके नोकर्मका सम्बन्ध दूर हुआ, इसलिये समस्त अमूर्त्तत्वादिक आत्मिक धर्म प्रगट हुए हैं, तथा जिनके भावकर्मका अभाव हुआ, इसलिये निराकुल आनन्दमय शुद्धस्वभावरूप परिणमन हो रहा है; तथा जिनके ध्यान द्वारा भव्य जीवोंको स्वद्रव्य – परद्रव्यका और औपाधिकभाव ****– स्वभावभावोंकाविज्ञान होता है, जिसके द्वारा उन सिद्धोंके समान स्वयं होनेका साधन होता है। इसलिये साधने योग्य जो अपना शुद्धस्वरूप उसे दर्शानेको प्रतिबिम्ब समान हैं तथा जो कृतकृत्य हुए हैं, इसलिये ऐसे ही अनंतकाल पर्यंत रहते हैं। — ऐसे निष्पन्न हुए सिद्धभगवानको हमारा नमस्कार हो।

आचार्यउपाध्यायसाधुका सामान्य स्वरूप :arrow_up:

अब, आचार्य – उपाध्याय – साधुके स्वरूपका अवलोकन करते हैंः —

जो विरागी होकर, समस्त परिग्रहका त्याग करके, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकारकरके — अंतरंगमें तो उस शुद्धोपयोग द्वारा अपनेको आपरूप अनुभव करते हैं, परद्रव्यमेंअहंबुद्धि धारण नहीं करते, तथा अपने ज्ञानादिक स्वभावको ही अपना मानते हैं, परभावोंमें ममत्व नहीं करते, तथा जो परद्रव्य व उनके स्वभाव ज्ञानमें प्रतिभाषित होते हैं उन्हें जानते तो हैं, परन्तु इष्ट-अनिष्ट मानकर उनमें राग-द्वेष नहीं करते; शरीरकी अनेक अवस्थाएँ होती हैं, बाह्य नाना निमित्त बनते हैं, परन्तु वहाँ कुछ भी सुख-दुःख नहीं मानते; तथा अपने योग्य बाह्य क्रिया जैसे बनती हैं वैसे बनती हैं, खींचकर उनको नहीं करते; तथा अपने उपयोगको बहुत नहीं भ्रमाते हैं, उदासीन होकर निश्चलवृत्तिको धारण करते हैं; तथा कदाचित् मंदरागके उदयसे शुभोपयोग भी होता है — उससे जो शुद्धोपयोगके बाह्य साधन हैं उनमें अनुराग करते हैं, परन्तु उस रागभावको हेय जानकर दूर करना चाहते हैं; तथा तीव्र कषायके उदयका अभाव होनेसे हिंसादिरूप अशुभोपयोग परिणतिका तो अस्तित्व ही नहीं रहा है; तथा ऐसी अन्तरंग (अवस्था) होने पर बाह्य दिगम्बर सौम्यमुद्राधारी हुए हैं, शरीरका सँवारना आदि विक्रियाओंसे रहित हुए हैं, वनखण्डादिमें वास करते हैं, अट्ठाईस मूलगुणोंका अखण्डित पालन करते हैं; बाईस परीषहोंको सहन करते हैं, बारह प्रकारके तपोंको आदरते हैं, कदाचित् ध्यानमुद्रा धारण करके प्रतिमावत् निश्चल होते हैं, कदाचित् अध्ययनादिक बाह्य धर्मक्रियाओंमें प्रवर्तते हैं, कदाचित् मुनिधर्मके सहकारी शरीरकी स्थितिके हेतु योग्य आहार-विहारादि क्रियाओंमें सावधान होते हैं।

ऐसे जैन मुनि हैं उन सबकी ऐसी ही अवस्था होती है।

आचार्यका स्वरूप :arrow_up:

उनमें जो सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्रकी अधिकतासे प्रधान पद प्राप्त करके संघमेंनायक हुए हैं; तथा जो मुख्यरूपसे तो निर्विकल्प स्वरूपाचरणमें ही मग्न है और जो कदाचित् धर्मके लोभी अन्य जीव-याचक उनको देखकर राग अंशके उदयसे करुणाबुद्धि हो तो उनको धर्मोपदेश देते हैं, जो दीक्षाग्राहक हैं उनको दीक्षा देते हैं, जो अपने दोषोंको प्रगट करते हैं, उनको प्रायश्चित्त विधिसे शुद्ध करते हैं।

ऐसे आचरण अचरानेवाले आचार्य उनको हमारा नमस्कार हो।

उपाध्यायका स्वरूप:arrow_up:

तथा जो बहुत जैन-शास्त्रोंके ज्ञाता होकर संघमें पठन-पाठनके अधिकारी हुए हैं; तथाजो समस्त शास्त्रोंका प्रयोजनभूत अर्थ जान एकाग्र हो अपने स्वरूपको ध्याते हैं, और यदि ****कदाचित् कषाय अंशके उदयसे वहाँ उपयोग स्थिर न रहे तो उन शास्त्रोंको स्वयं पढ़ते हैं तथा अन्य धर्मबुद्धियोंको पढ़ाते हैं।

ऐसे समीपवर्ती भव्योंको अध्ययन करानेवाले उपाध्याय, उनको हमारा नमस्कार हो।

साधुका स्वरूप:arrow_up:

पुनश्च, इन दो पदवी धारकोंके बिना अन्य समस्त जो मुनिपदके धारक हैं तथा जोआत्मस्वभावको साधते हैं; जैसे अपना उपयोग परद्रव्यमें इष्ट-अनिष्टपना मानकर फ ँसे नहीं व भागे नहीं वैसे उपयोगको सधाते हैं और बाह्यमें उनके साधनभूत तपश्चरणादि क्रियाओंमें प्रवर्तते हैं तथा कदाचित् भक्ति – वंदनादि कार्योंमें प्रवर्तते हैं।

ऐसे आत्मस्वभावके साधक साधु हैं, उनको हमारा नमस्कार हो।

पूज्यत्वका कारण:arrow_up:

इस प्रकार इन अरहंतादिका स्वरूप है सो वीतराग-विज्ञानमय है। उसहीके द्वाराअरहंतादिक स्तुतियोग्य महान हुए हैं। क्योंकि जीवतत्त्वकी अपेक्षा तो सर्व ही जीव समान हैं, परन्तु रागादि विकारोंसे व ज्ञानकी हीनतासे तो जीव निन्दायोग्य होते हैं और रागादिककी हीनतासे व ज्ञानकी विशेषतासे स्तुतियोग्य होते हैं; सो अरहंत-सिद्धोंके तो सम्पूर्ण रागादिकी हीनता और ज्ञानकी विशेषता होनेसे सम्पूर्ण वीतराग-विज्ञानभाव संभव है और आचार्य, उपाध्याय तथा साधुओंको एकदेश रागादिककी हीनता और ज्ञानकी विशेषता होनेसे एकदेश वीतराग-विज्ञान संभव है। — इसलिये उन अरहंतादिकको स्तुतियोग्य महान जानना।

पुनश्च, ये जो अरहंतादिक पद हैं उनमें ऐसा जानना कि — मुख्यरूपसे तो तीर्थंकरकाऔर गौणरूपसे सर्वकेवलीका प्राकृत भाषामें अरहंत तथा संस्कृतमें अर्हत् ऐसा नाम जानना। तथा चौदहवें गुणस्थानके अनंतर समयसे लेकर सिद्ध नाम जानना। पुनश्च, जिनको आचार्यपद हुआ हो वे संघमें रहें अथवा एकाकी आत्मध्यान करें अथवा एकाविहारी हों अथवा आचार्योंमें भी प्रधानताको प्राप्त करके गणधरपदवीके धारक हों — उन सबका नाम आचार्य कहते हैं।

पुनश्च, पठन-पाठन तो अन्य मुनि भी करते हैं, परन्तु जिनको आचार्यों द्वारा दिया गया उपाध्यायपद प्राप्त हुआ हो वे आत्मध्यानादि कार्य करते हुए भी उपाध्याय ही नाम पाते हैं। तथा जो पदवीधारक नहीं हैं वे सर्व मुनि साधुसंज्ञाके धारक जानना।

यहाँ ऐसा नियम नहीं है कि — पंचाचारोंसे आचार्यपद होता है, पठन-पाठनसेउपाध्यायपद होता है, मूलगुणोंके साधनसे साधुपद होता है; क्योंकि ये क्रियाएँ तो सर्व मुनियोंके साधारण हैं, परन्तु शब्दनयसे उनका अक्षरार्थ वैसे किया जाता है। समभिरूढ़नयसे पदवीकी अपेक्षा ही आचार्यादिक नाम जानना। जिसप्रकार शब्दनयसे जो गमन करे उसे गाय कहते हैं, सो गमन तो मनुष्यादिक भी करते हैं; परन्तु समभिरूढ़नयसे पर्याय-अपेक्षा नाम है। उसही प्रकार यहाँ समझना।

यहाँ सिद्धोंसे पहले अरहंतोंको नमस्कार किया सो क्या कारण ? ऐसा संदेह उत्पन्नहोता है। उसका समाधान यह हैः — नमस्कार करते हैं सो अपना प्रयोजन सधनेकी अपेक्षासेकरते हैं; सो अरहंतोंसे उपदेशादिकका प्रयोजन विशेष सिद्ध होता है, इसलिये पहले नमस्कार किया है।

इसप्रकार अरहंतादिकका स्वरूप चिंतवन किया, क्योंकि स्वरूप चिंतवन करनेसे विशेषकार्यसिद्धि होती है। पुनश्च, इन अरहंतादिकको पंचपरमेष्टी कहते हैं; क्योंकि जो सर्वोत्कृष्ट इष्ट हो उसका नाम परमेष्ट है। पंच जो परमेष्ट उनका समाहार-समुदाय उसका नाम पंचपरमेष्टी जानना।

पुनश्च — ऋषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ,पुष्पदन्त, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुन्थु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व, वर्द्धमान नामके धारक चौबीस तीर्थंकर इस भरतक्षेत्रमें वर्तमान धर्मतीर्थके नायक हुए हैं; गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण कल्याणकोंमें इन्द्रादिकों द्वारा विशेष पूज्य होकर अब सिद्धालयमें विराजमान हैं; उन्हें हमारा नमस्कार हो।पुनश्च — सीमंधर, युगमंधर, बाहु, सुबाहु, संजातक, स्वयंप्रभ, वृषभानन, अनंतवीर्य,सूरप्रभ, विशालकीर्ति, वज्रधर, चन्द्रानन, चन्द्रबाहु, भुजंगम, ईश्वर, नेमिप्रभ, वीरसेन, महाभद्र, देवयश, अजितवीर्य नामके धारक बीस तीर्थंकर पंचमेरु सम्बन्धी विदेह क्षेत्रोंमें वर्तमानमें केवलज्ञान सहित विराजमान हैं; उन्हें हमारा नमस्कार हो।

यद्यपि परमेष्टीपदमें इनका गर्भितपना है तथापि विद्यमानकालमें इनकी विशेषता जानकरअलग नमस्कार किया है।

पुनश्च, त्रिलोकमें जो अकृत्रिम जिनबिम्ब विराजमान हैं, मध्यलोकमें विधिपूर्वक कृत्रिम जिनबिम्ब विराजमान हैं; जिनके दर्शनादिकसे एक धर्मोपदेशके बिना अन्य अपने हितकी सिद्धि जैसे तीर्थंकर – केवलीके दर्शनादिकसे होती है वैसे ही होती है; उन जिनबिम्बोंको हमारा नमस्कारहो।

पुनश्च, केवलीकी दिव्यध्वनि द्वारा दिये गये उपदेशके अनुसार गणधर द्वारा रचे गयेअंग-प्रकीर्णक, उनके अनुसार अन्य आचार्यादिकों द्वारा रचे गये ग्रंथादिक — ऐसे ये सबजिनवचन हैं; स्याद्वाद चिह्न द्वारा पहिचानने योग्य हैं, न्यायमार्गसे अविरुद्ध हैं इसलिये प्रामाणिक हैं; जीवको तत्त्वज्ञानका कारण हैं, इसलिये उपकारी हैं; उन्हें हमारा नमस्कार हो।

पुनश्च — चैत्यालय, आर्यिका, उत्कृष्ट श्रावक आदि द्रव्य; तीर्थक्षेत्रादि क्षेत्र; कल्याणकालआदि काल तथा रत्नत्रय आदि भाव; जो मेरे नमस्कार करने योग्य हैं, उन्हें नमस्कार करता हूँ, तथा जो किंचित् विनय करने योग्य हैं, उनकी यथायोग्य विनय करता हूँ।

इस प्रकार अपने इष्टोंका सन्मान करके मंगल किया है। अब, वे अरहंतादिक इष्ट कैसे हैं सो विचार करते हैंः —

जिसके द्वारा सुख उत्पन्नहो तथा दुःखका विनाश हो उस कार्यका नाम प्रयोजन है; और जिसके द्वारा उस प्रयोजनकी सिद्धि हो वही अपना इष्ट है। सो हमारे इस अवसरमें वीतराग-विशेषज्ञानका होना वही प्रयोजन है, क्योंकि उसके द्वारा निराकुल सच्चे सुखकी प्राप्ति होती है और सर्व आकुलतारूप दुःखका नाश होता है।

अरहंतादिकसे प्रयोजनसिद्धि:arrow_up:

पुनश्च, इस प्रयोजनकी सिद्धि अरहंतादिक द्वारा होती है। किस प्रकार ? सो विचारते हैंः —

आत्माके परिणाम तीन प्रकारके हैं — संक्लेश, विशुद्ध और शुद्ध। वहाँ तीव्र कषायरूपसंक्लेश हैं, मंद कषायरूप विशुद्ध हैं, तथा कषायरहित शुद्ध हैं। वहाँ वीतराग-विशेषज्ञानरूप अपने स्वभावके घातक जो ज्ञानावरणादि घातिया कर्म हैं; उनका संक्लेश परिणामों द्वारा तो तीव्र बन्ध होता है, और विशुद्ध परिणामों द्वारा मंद बंध होता है, तथा विशुद्ध परिणाम प्रबल हों तो पूर्वकालमें जो तीव्र बंध हुआ था उसको भी मंद करता है। शुद्ध परिणामों द्वारा बंध नहीं होता, केवल उनकी निर्जरा ही होती है। अरहंतादिके प्रति स्तवनादिरूप जो भाव होते हैं, वे कषायोंकी मंदता सहित ही होते हैं, इसलिये वे विशुद्ध परिणाम हैं। पुनश्च, समस्त कषाय मिटानेका साधन हैं, इसलिये शुद्ध परिणामका कारण हैं; सो ऐसे परिणामोंसे अपने घातक घातिकर्मकी हीनता होनेसे सहज ही वीतराग-विशेषज्ञान प्रगट होता है। जितने अंशोंमें वह हीन हो उतने अंशोंमें यह प्रगट होता है। — इस प्रकार अरहंतादिक द्वारा अपनाप्रयोजन सिद्ध होता है।

अथवा अरहंतादिके आकारका अवलोकन करना या स्वरूप विचार करना या वचनसुनना या निकटवर्ती होना या उनके अनुसार प्रवर्तन करना — इत्यादि कार्य तत्काल हीनिमित्तभूत होकर रागादिकको हीन करते हैं, जीव-अजीवादिके विशेष ज्ञानको उत्पन्न करते हैं। — इसलिये ऐसे भी अरहंतादिक द्वारा वीतराग-विशेषज्ञानरूप प्रयोजनकी सिद्धि होती है।

यहाँ कोई कहे कि इनके द्वारा ऐसे प्रयोजनकी तो सिद्धि इस प्रकार होती है, परन्तुजिससे इन्द्रियजनित सुख उत्पन्न हो तथा दुःखका विनाश हो — ऐसे भी प्रयोजनकी सिद्धिइनके द्वारा होती है या नहीं ? उसका समाधानः —

जो अरहंतादिके प्रति स्तवनादिरूप विशुद्ध परिणाम होते हैं उनसे अघातिया कर्मोंकीसाता आदि पुण्यप्रकृतियोंका बन्ध होता है; और यदि वे परिणाम तीव्र हों तो पूर्वकालमें जो असाता आदि पापप्रकृतियोंका बन्ध हुआ था उन्हें भी मन्द करता है अथवा नष्ट करके पुण्यप्रकृतिरूप परिणमित करता है; और उस पुण्यका उदय होने पर स्वयमेव इन्द्रियसुखकी कारणभूत सामग्री प्राप्त होती है तथा पापका उदय दूर होने पर स्वयमेव दुःखकी कारणभूत सामग्री दूर हो जाती है। — इस प्रकार इस प्रयोजनकी भी सिद्धि उनके द्वारा होती है।

अथवा जिनशासनके भक्त देवादिक हैं वे उस भक्त पुरुषको अनेक इन्द्रियसुखकी कारणभूत सामग्रियोंका संयोग कराते हैं और दुःखकी कारणभूत सामग्रियोंको दूर करते हैं। — इसप्रकार भी इस प्रयोजनकी सिद्धि उन अरहंतादिक द्वारा होती है। परन्तु इस प्रयोजनसे कुछ भी अपना हित नहीं होता ; क्योंकि यह आत्मा कषायभावोंसे बाह्य सामग्रियोंमें इष्ट – अनिष्टपनामानकर स्वयं ही सुख – दुःखकी कल्पना करता है। कषायके बिना बाह्य सामग्री कुछ सुख — दुःखकी दाता नहीं है। तथा कषाय है सो सर्व आकुलतामय है, इसलिये इन्द्रियजनित सुखकी इच्छा करना और दुःखसे डरना यह भ्रम है।

पुनश्च, इस प्रयोजनके हेतु अरहंतादिककी भक्ति करनेसे भी तीव्र कषाय होनेके कारणपापबंध ही होता है, इसलिये अपनेको इस प्रयोजनका अर्थी होना योग्य नहीं है। अरहंतादिककी भक्ति करनेसे ऐसे प्रयोजन तो स्वयमेव ही सिद्ध होते हैं।

इसप्रकार अरहंतादिक परम इष्ट मानने योग्य हैं।

तथा वे अरहंतादिक ही परम मंगल हैं। उनमें भक्तिभाव होनेसे परम मंगल होताहै। ‘मंग’ अर्थात् सुख, उसे ‘लाति’ अर्थात् देता है; अथवा ‘मं’ अर्थात् पाप, उसे ‘गालयति’ अर्थात् गाले, दूर करे उसका नाम मंगल है। इस प्रकार उनके द्वारा पूर्वोक्त प्रकारसे दोनों कार्योंकी सिद्धि होती है, इसलिये उनके परम मंगलपना संभव है।

मंगलाचरण करनेका कारण:arrow_up:

यहाँ कोई पूछे कि — प्रथम ग्रंथके आदिमें मंगल ही किया सो क्या कारण है ? उसका उत्तरः — सुखसे ग्रंथकी समाप्ति हो, पापके कारण कोई विघन् न हो, इसलिये यहाँ प्रथम मंगल किया है।

यहाँ तर्क — जो अन्यमती इसप्रकार मंगल नहीं करते हैं उनके भी ग्रन्थकी समाप्तितथा विघन्का न होना देखते हैं वहाँ क्या हेतु है ? उसका समाधानः — अन्यमती जो ग्रन्थकरते हैं उसमें मोहके तीव्र उदयसे मिथ्यात्व – कषायभावोंका पोषण करनेवाले विपरीत अर्थोंकोधरते (रखते) हैं, इसलिये उसकी निर्विघन् समाप्ति तो ऐसे मंगल किये बिना ही हो। यदि ऐसे मंगलोंसे मोह मंद हो जाये तो वैसा विपरीत कार्य कैसे बने ?

तथा हम भी ग्रन्थ करते हैं उसमें मोहकी मंदताके कारण वीतराग तत्त्वज्ञानका पोषण करनेवाले अर्थोंको धरेंगे (रखेंगे); उसकी निर्विघन् समाप्ति ऐसे मंगल करनेसे ही हो। यदि ऐसे मंगल न करें तो मोहकी तीव्रता रहे, तब ऐसा उत्तम कार्य कैसे बने ?

पुनश्च, वह कहता है कि — ऐसे तो मानेंगे; परन्तु कोई ऐसा मंगल नहीं करता उसकेभी सुख दिखाई देता है, पापका उदय नहीं दिखाई देता और कोई ऐसा मंगल करता है उसके भी सुख नहीं दिखाई देता, पापका उदय दिखाई देता है — इसलिये पूर्वोक्त मंगलपनाकैसे बने ? उससे कहते हैंः —

जीवोंके संक्लेश – विशुद्ध परिणाम अनेक जातिके हैं। उनके द्वारा अनेक कालोंमें पहलेबँधे हुए कर्म एक कालमें उदय आते हैं। इसलिये जिस प्रकार पूर्वमें बहुत धनका संचय हो उसके बिना कमाए भी धन दिखाई देता है और ऋण दिखाई नहीं देता, तथा जिसके पूर्वमें ऋण बहुत हो उसके धन कमाने पर भी ऋण दिखाई देता है धन दिखाई नहीं देता; परन्तु विचार करनेसे कमाना तो धनहीका कारण है, ऋणका कारण नहीं है। उसी प्रकार जिसके पूर्वमें बहुत पुण्य बंध हुआ हो उसके यहाँ ऐसा मंगल किये बिना भी सुख दिखाई देता है, पापका उदय दिखाई नहीं देता। और जिसके पूर्वमें बहुत पापबंध हुआ हो उसके यहाँ ऐसा मंगल करने पर भी सुख दिखाई नहीं देता, पापका उदय दिखाई देता है; परन्तु विचार करनेसे ऐसा मंगल तो सुखहीका कारण है, पाप उदयका कारण नहीं है। — इस प्रकारपूर्वोक्त मंगलका मंगलपना बनता है।

पुनश्च, वह कहता है कि — यह भी माना; परन्तु जिनशासनके भक्त देवादिक हैं, उन्होंनेउस मंगल करनेवालेकी सहायता नहीं की और मंगल न करनेवालेको दण्ड नहीं दिया सो क्या कारण ? उसका समाधानः — जीवोंको सुख-दुःख होनेका प्रबल कारण अपना कर्मका उदयहै, उसहीके अनुसार बाह्य निमित्त बनते हैं, इसलिये जिसके पापका उदय हो उसको सहायका निमित्त नहीं बनता और जिसके पुण्यका उदय हो उसको दण्डका निमित्त नहीं बनता।

यह निमित्त कैसे नहीं बनता सो कहते हैंः — जो देवादिक हैं वे क्षयोपशमज्ञानसेसबको युगपत् नहीं जान सकते। इसलिये मंगल करनेवाले और नहीं करनेवालेका जानपना किसी देवादिकको किसी कालमें होता है। इसलिये यदि उनका जानपना न हो तो कैसे सहाय करें अथवा दण्ड दें ? और जानपना हो, तब स्वयंको जो अतिमंदकषाय हो तो सहाय करनेके या दण्ड देनेके परिणाम ही नहीं होते, तथा तीव्रकषाय हो तो धर्मानुराग नहीं हो सकता, तथा मध्यमकषायरूप वह कार्य करनेके परिणाम हुए और अपनी शक्ति न हो तो क्या करें ? — इस प्रकार सहाय करनेका या दण्ड देनेका निमित्त नहीं बनता।

यदि अपनी शक्ति हो और अपनेको धर्मानुरागरूप मध्यमकषायका उदय होनेसे वैसेही परिणाम हों, तथा उस समय अन्य जीवका धर्म-अधर्मरूप कर्त्तव्य जानें, तब कोई देवादिक किसी धर्मात्माकी सहाय करते हैं अथवा किसी अधर्मीको दण्ड देते हैं। — इस प्रकार कार्यहोनेका कुछ नियम तो है नहीं — ऐसे समाधान किया।

यहाँ इतना जानना कि सुख होनेकी, दुःख न होनेकी, सहाय करानेकी, दुःख दिलानेकीजो इच्छा है सो कषायमय है; तत्काल तथा आगामी कालमें दुःखदायक है। इसलिये ऐसी इच्छाको छोड़कर हमने तो एक वीतराग-विशेषज्ञान होने के अर्थी होकर अरहंतादिकको नमस्कारादिरूप मंगल किया है।

ग्रन्थकी प्रामाणिकता और आगम-परम्परा:arrow_up:

इस प्रकार मंगलाचरण करके अब सार्थक ‘‘मोक्षमार्गप्रकाशक’’ नामके ग्रंथका उद्योतकरते हैं। वहाँ, ‘यह ग्रन्थ प्रमाण है’ — ऐसी प्रतीति करानेके हेतु पूर्व अनुसारका स्वरूपनिरूपण करते हैंः —

अकारादि अक्षर हैं वे अनादि-निधन हैं, किसीके किये हुए नहीं हैं। इनका आकार ****लिखना तो अपनी इच्छाके अनुसार अनेक प्रकार है, परन्तु जो अक्षर बोलनेमें आते हैं वे तो सर्वत्र सर्वदा ऐसे प्रवर्तते हैं। इसीलिये कहा है कि — ‘सिद्धो वर्णसमाम्नायः।’ इसकाअर्थ यह कि — जो अक्षरोंका सम्प्रदाय है, सो स्वयंसिद्ध है, तथा उन अक्षरोंसे उत्पन्न सत्यार्थकेप्रकाशक पद उनके समूहका नाम श्रुत है, सो भी अनादि-निधन है। जैसे ‘जीव’ ऐसा अनादि- निधन पद है सो जीवको बतलानेवाला है। इस प्रकार अपने-अपने सत्य अर्थके प्रकाशक अनेक पद उनका जो समुदाय सो श्रुत जानना। पुनश्च, जिस प्रकार मोती तो स्वयंसिद्ध हैं, उनमेंसे कोई थोड़े मोतियोंको, कोई बहुत मोतियोंको, कोई किसी प्रकार, कोई किसी प्रकार गूँथकर गहना बनाते हैं; उसी प्रकार पद तो स्वयंसिद्ध हैं, उनमेंसे कोई थोड़े पदोंको, कोई बहुत पदोंको, कोई किसी प्रकार, कोई किसी प्रकार गूँथकर ग्रंथ बनाते हैं। यहाँ मैं भी उन सत्यार्थपदोंको मेरी बुद्धि अनुसार गूँथकर ग्रंथ बनाता हूँ; मेरी मतिसे कल्पित झूठे अर्थके सूचक पद इसमें नहीं गूँथता हूँ। इसलिये यह ग्रंथ प्रमाण जानना।

प्रश्न : — उन पदोंकी परम्परा इस ग्रन्थपर्यन्त किस प्रकार प्रवर्तमान है ?

समाधान : — अनादिसे तीर्थंकर केवली होते आये हैं, उनको सर्वका ज्ञान होता है;इसलिये उन पदोंका तथा उनके अर्थोंका भी ज्ञान होता है। पुनश्च, उन तीर्थंकर केवलियोंका दिव्यध्वनि द्वारा ऐसा उपदेश होता है जिससे अन्य जीवोंको पदोंका एवं अर्थोंका ज्ञान होता है; उसके अनुसार गणधरदेव अंगप्रकीर्णरूप ग्रन्थ गूँथते हैं तथा उनके अनुसार अन्य-अन्य आचार्यादिक नानाप्रकार ग्रंथादिककी रचना करते हैं। उनका कोई अभ्यास करते हैं, कोई उनको कहते हैं, कोई सुनते हैं। — इसप्रकार परम्परामार्ग चला आता है।

अब, इस भरतक्षेत्रमें वर्तमान अवसर्पिणी काल है। उसमें चौबीस तीर्थंकर हुए, जिनमेंश्री वर्द्धमान नामक अन्तिम तीर्थंकरदेव हुए। उन्होंने केवलज्ञान विराजमान होकर जीवोंको दिव्यध्वनि द्वारा उपदेश दिया। उसको सुननेका निमित्त पाकर गौतम नामक गणधरने अगम्य अर्थोंको भी जानकर धर्मानुरागवश अंगप्रकीर्णकोंकी रचना की। फि र वर्द्धमानस्वामी तो मुक्त हुए। वहाँ पीछे इस पंचमकालमें तीन केवली हुए। — (१) गौतम, (२) सुधर्माचार्य और(३) जम्बूस्वामी। तत्पश्चात् कालदोषसे केवलज्ञानी होनेका तो अभाव हुआ, परन्तु कुछ काल तक द्वादशांगके पाठी श्रुतकेवली रहे और फि र उनका भी अभाव हुआ। फि र कुछ काल तक थोड़े अंगोंके पाठी रहे, पीछे उनका भी अभाव हुआ। तब आचार्यादिकों द्वारा उनके अनुसार बनाए गए ग्रन्थ तथा अनुसारी ग्रन्थोंके अनुसार बनाए गये ग्रन्थ उनकी ही प्रवृत्ति रही। उनमें भी कालदोषसे दुष्टों द्वारा कितने ही ग्रन्थोंकी व्युच्छत्ति हुई तथा महान ग्रन्थोंका अभ्यासादि न होनेसे व्युच्छत्ति हुई। तथा कितने ही महान ग्रन्थ पाये जाते हैं, उनका बुद्धिकी मंदताके कारण अभ्यास होता नहीं। जैसे कि — दक्षिणमें गोम्मटस्वामीके निकट मूड़बिद्री नगरमेंधवल, महाधवल, जयधवल पाये जाते हैं; परन्तु दर्शनमात्र ही हैं। तथा कितने ही ग्रन्थ अपनी बुद्धि द्वारा अभ्यास करने योग्य पाये जाते हैं, उनमें भी कुछ ग्रन्थोंका ही अभ्यास बनता है। ऐसे इस निकृष्ट कालमें उत्कृष्ट जैनमतका घटना तो हुआ, परन्तु इस परम्परा द्वारा अब भी जैन-शास्त्रोंमें सत्य अर्थका प्रकाशन करनेवाले पदोंका सद्भाव प्रवर्तमान है।

असत्यपद रचना प्रतिषेध:arrow_up:

यहाँ कोई पूछता है कि — परम्परा तो हमने इस प्रकार जानी; परन्तु इस परम्परामेंसत्यार्थ पदोंकी ही रचना होती आई, असत्यार्थ पद नहीं मिले, — ऐसी प्रतीति हमें कैसे हो?उसका समाधानः — असत्यार्थ पदोंकी रचना अति तीव्रकषाय हुए बिना नहीं बनती; क्योंकिजिस असत्य रचनासे परम्परा अनेक जीवोंका महा बुरा हो और स्वयंको ऐसी महाहिंसाके फ लरूप नरक – निगोदमें गमन करना पड़े — ऐसा महाविपरीत कार्य तो क्रोध, मान, माया, लोभअत्यन्त तीव्र होने पर ही होता है; जैनधर्ममें तो ऐसा कषायवान होता नहीं है।

प्रथम मूल उपदेशदाता तो तीर्थंकर केवली, सो तो सर्वथा मोहके नाशसे सर्वकषायोंसेरहित ही हैं। फि र ग्रंथकर्त्ता गणधर तथा आचार्य, वे मोहके मंद उदयसे सर्व बाह्याभ्यंतर परिग्रहको त्यागकर महामंदकषायी हुए हैं; उनके उस मंदकषायके कारण किंचित् शुभोपयोग ही की प्रवृत्ति पाई जाती है और कुछ प्रयोजन ही नहीं है। तथा श्रद्धानी गृहस्थ भी कोई ग्रन्थ बनाते हैं वे भी तीव्रकषायी नहीं होते। यदि उनके तीव्रकषाय हो तो सर्व कषायोंका जिस-तिस प्रकारसे नाश करनेवाला जो जिनधर्म उसमें रुचि कैसे होती ? अथवा जो कोई मोहके उदयसे अन्य कार्यों द्वारा कषाय पोषण करता है तो करो; परन्तु जिन-आज्ञा भंग करके अपनी कषायका पोषण करे तो जैनीपना नहीं रहता।

इस प्रकार जिनधर्ममें ऐसा तीव्रकषायी कोई नहीं होता जो असत्य पदोंकी रचना करकेपरका और अपना पर्याय-पर्यायमें बुरा करे।

प्रश्नः — यदि कोई जैनाभास तीव्रकषायी होकर असत्यार्थ पदोंको जैन-शास्त्रोंमें मिलायेऔर फि र उसकी परम्परा चलती रहे तो क्या किया जाय ?

समाधानः — जैसे कोई सच्चे मोतियोंके गहनेमें झूठे मोती मिला दे, परन्तु झलक नहींमिलती; इसलिये परीक्षा करके पारखी ठगाता भी नहीं है, कोई भोला हो वही मोतीके नामसे ठगा जाता है; तथा उसकी परम्परा भी नहीं चलती, शीघ्र ही कोई झूठे मोतियोंका निषेध करता है। उसी प्रकार कोई सत्यार्थ पदोंके समूहरूप जैनशास्त्रमें असत्यार्थ पद मिलाये; परन्तु जैनशास्त्रोंके पदोंमें तो कषाय मिटानेका तथा लौकिक कार्य घटानेका प्रयोजन है, और उस पापीने जो असत्यार्थ पद मिलाये हैं, उनमें कषायका पोषण करनेका तथा लौकिक-कार्य साधनेका प्रयोजन है, इस प्रकार प्रयोजन नहीं मिलता; इसलिये परीक्षा करके ज्ञानी ठगाता भी नहीं, कोई मूर्ख हो वही जैनशास्त्रके नामसे ठगा जाता है, तथा उसकी परम्परा भी नहीं चलती, शीघ्र ही कोई उन असत्यार्थ पदोंका निषेध करता है।

दूसरी बात यह है कि — ऐसे तीव्रकषायी जैनाभास यहाँ इस निकृष्ट कालमें ही होतेहैं; उत्कृष्ट क्षेत्र – काल बहुत हैं, उनमें तो ऐसे होते नहीं। इसलिये जैनशास्त्रोंमें असत्यार्थपदोंकी परम्परा नहीं चलती। — ऐसा निश्चय करना।

पुनश्च, वह कहे कि — कषायोंसे तो असत्यार्थ पद न मिलाये, परन्तु ग्रन्थ करनेवालोंकोक्षयोपशम ज्ञान है, इसलिये कोई अन्यथा अर्थ भासित हो उससे असत्यार्थ पद मिलाये, उसकी तो परम्परा चले ?

समाधानः — मूल ग्रन्थकर्त्ता तो गणधरदेव हैं, वे स्वयं चार ज्ञानके धारक हैं और साक्षात् केवलीका दिव्यध्वनि-उपदेश सुनते हैं, उसके अतिशयसे सत्यार्थ ही भासित होता है और उसहीके अनुसार ग्रन्थ बनाते हैं; इसलिये उन ग्रन्थोंमें तो असत्यार्थ पद कैसे गूँथे जायें ? तथा जो अन्य आचार्यादिक ग्रन्थ बनाते हैं, वे भी यथायोग्य सम्यग्ज्ञानके धारक हैं और वे मूल ग्रन्थोंकी परम्परासे ग्रन्थ बनाते हैं। दूसरी बात यह है कि — जिन पदोंका स्वयंकोज्ञान न हो उनकी तो वे रचना करते नहीं, और जिन पदोंका ज्ञान हो उन्हें सम्यग्ज्ञान- प्रमाणसे ठीक गूँथते हैं। इसलिये प्रथम तो ऐसी सावधानीमें असत्यार्थ पद गूँथे जाते नहीं, और कदाचित् स्वयंको पूर्व ग्रन्थोंके पदोंका अर्थ अन्यथा ही भासित हो तथा अपनी प्रमाणतामें भी उसी प्रकार आ जाये तो उसका कुछ सारा (वश) नहीं है; परन्तु ऐसा किसीको ही भासित होता है सब ही को तो नहीं, इसलिये जिन्हें सत्यार्थ भासित हुआ हो वे उसका निषेध करके परम्परा नहीं चलते देते।

पुनश्च, इतना जानना कि — जिनको अन्यथा जाननेसे जीवका बुरा हो ऐसे देव-गुरु-धर्मादिक तथा जीव-अजीवादिक तत्त्वोंको तो श्रद्धानी जैनी अन्यथा जानते ही नहीं; इनका तो जैनशास्त्रोंमें प्रसिद्ध कथन है। और जिनको भ्रमसे अन्यथा जानने पर भी जिन-आज्ञा माननेसे जीवका बुरा न हो, ऐसे कोई सूक्ष्म अर्थ हैं; उनमेंसे किसीको कोई अन्यथा प्रमाणतामें लाये तो भी उसका विशेष दोष नहीं है।

वही गोम्मटसारमें कहा हैः —

सम्माइट्ठी जीवो उवइट्ठं पवयणं तु सद्दहदि।
सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा।। (गाथा २७ जीवकाण्ड)

अर्थः — सम्यग्दृष्टि जीव उपदेशित सत्य वचनका श्रद्धान करता है और अजानमान गुरुकेनियोगसे असत्यका भी श्रद्धान करता है — ऐसा कहा है।

पुनश्च, हमें भी विशेष ज्ञान नहीं है और जिन-आज्ञा भंग करनेका बहुत भय है,परन्तु इसी विचारके बलसे ग्रन्थ करनेका साहस करते हैं। इसलिये इस ग्रन्थमें जैसा पूर्व ग्रन्थोंमें वर्णन है वैसा ही वर्णन करेंगे। अथवा कहीं पूर्व ग्रन्थोंमें सामान्य गूढ वर्णन था, उसका विशेष प्रगट करके वर्णन यहाँ करेंगे। सो इसप्रकार वर्णन करनेमें मैं तो बहुत सावधानी रखूँगा। सावधानी करने पर भी कहीं सूक्ष्म अर्थका अन्यथा वर्णन हो जाय तो विशेष बुद्धिमान हों, वे उसे सँवारकर शुद्ध करें — ऐसी मेरी प्रार्थना है।

इसप्रकार शास्त्र करनेका निश्चय किया है।

अब, यहाँ, कैसे शास्त्र पढ़ने — सुनने योग्य हैं तथा उन शास्त्रोंके वक्ता — श्रोता कैसेहोने चाहिये, उसका वर्णन करते हैं।

पढ़ने – सुनने योग्य शास्त्र:arrow_up:

जो शास्त्र मोक्षमार्गका प्रकाश करें वही शास्त्र पढ़ने — सुनने योग्य हैं; क्योंकि जीवसंसारमें नाना दुःखोंसे पीड़ित हैं। यदि शास्त्ररूपी दीपक द्वारा मोक्षमार्गको प्राप्त कर लें तो उस मार्गमें स्वयं गमन कर उन दुःखोंसे मुक्त हों। सो मोक्षमार्ग एक वीतरागभाव है; इसलिये जिन शास्त्रोंमें किसी प्रकार राग-द्वेष-मोहभावोंका निषेध करके वीतरागभावका प्रयोजन प्रगट किया हो उन्हीं शास्त्रोंका पढ़ने – सुनना उचित है। तथा जिन शास्त्रोंमें श्रृंगार – भोग – कुतूहलादिकका पोषण करके रागभावका; हिंसा – युद्धादिकका पोषण करके द्वेषभावका; औरअतत्त्वश्रद्धानका पोषण करके मोहभाव का प्रयोजन प्रगट किया हो वे शास्त्र नहीं, शस्त्र हैं; क्योंकि जिन राग-द्वेष-मोह भावोंसे जीव अनादिसे दुःखी हुआ उनकी वासना जीवको बिना सिखलाये ही थी और इन शास्त्रों द्वारा उन्हींका पोषण किया, भला होनेकी क्या शिक्षा दी ? जीवका स्वभाव घात ही किया। इसलिये ऐसे शास्त्रोंका पढ़ने – सुनना उचित नहीं है।

यहाँ पढ़ने – सुनना जिस प्रकार कहा; उसी प्रकार जोड़ना, सीखना, सिखाना, विचारना,लिखाना आदि कार्य भी उपलक्षणसे जान लेना।

इसप्रकार जो साक्षात् अथवा परम्परासे वीतरागभावका पोषण करे — ऐसे शास्त्र हीका अभ्यास करने योग्य है।

वक्ताका स्वरूप:arrow_up:

अब इनके वक्ताका स्वरूप कहते हैंः — प्रथम तो वक्ता कैसा होना चाहिये कि जोजैनश्रद्धानमें दृढ़ हो; क्योंकि यदि स्वयं अश्रद्धानी हो तो औरोंको श्रद्धानी कैसे करे? श्रोता तो स्वयं ही से हीनबुद्धिके धारक हैं, उन्हें किसी युक्ति द्वारा श्रद्धानी कैसे करे? और श्रद्धान ही सर्व धर्मका मूल है✽, पुनश्च, वक्ता कैसा होना चाहिये कि जिसे विद्याभ्यास करनेसे शास्त्र-पढ़नेयोग्य बुद्धि प्रगट हुई हो; क्योंकि ऐसी शक्तिके बिना वक्तापनेका अधिकारी कैसे हो ? पुनश्च, वक्ता कैसा होना चाहिये कि जो सम्यग्ज्ञान द्वारा सर्व प्रकारके व्यवहार-निश्चयादिरूप व्याख्यानका अभिप्राय पहिचानता हो; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो कहीं अन्य प्रयोजनसहित व्याख्यान हो उसका अन्य प्रयोजन प्रगट करके विपरीत प्रवृत्ति कराये। पुनश्च, वक्ता कैसा होना चाहिये कि जिसे जिनआज्ञा भंग करनेका भय बहुत हो; क्योंकि यदि ऐसा नहीं हो तो कोई अभिप्राय विचार कर सूत्रविरुद्ध उपदेश देकर जीवोंका बुरा करे। सो ही कहा हैः —

बहुगुणविज्जाणिलयो असुत्तभासी तहावि मुत्तव्वो।
जह वरमणिजुत्तो वि हु विग्घयरो विसहरो लोए।।

अर्थः — जो अनेक क्षमादिकगुण तथा व्याकरणादि विद्याका स्थान है, तथापि उत्सूत्रभाषीहै तो छोड़नेयोग्य ही है। जैसे कि — उत्कृष्ट मणिसंयुक्त होने पर भी सर्प है सो लोकमेंविघन् ही का करनेवाला है।

पुनश्च, वक्ता कैसा होना चाहिये कि जिसको शास्त्र पढ़कर आजीविका आदि लौकिक-कार्य साधनेकी इच्छा न हो; क्योंकि यदि आशावान हो तो यथार्थ उपदेश नहीं दे सकता, उसे तो कुछ श्रोताओंके अभिप्रायके अनुसार व्याख्यान करके अपना प्रयोजन साधनेका ही साधन रहे। तथा श्रोताओंसे वक्ताका पद उच्च है; परन्तु यदि वक्ता लोभी हो तो वक्ता स्वयं हीन हो जाय और श्रोता उच्च हो।

पुनश्च, वक्ता कैसा होना चाहिये कि जिसके तीव्र क्रोध - मान नहीं हो; क्योंकितीव्र क्रोधी-मानीकी निन्दा होगी, श्रोता उससे डरते रहेंगे, तब उससे अपना हित कैसे करेंगे ? पुनश्च, वक्ता कैसा होना चाहिये कि जो स्वयं ही नाना प्रश्न उठाकर स्वयं ही उत्तर दे; अथवा अन्य जीव अनेक प्रकारसे बहुत बार प्रश्न करें तो मिष्ट वचन द्वारा जिस प्रकार उनका संदेह दूर हो उसी प्रकार समाधान करे। यदि स्वयंमें उत्तर देनेकी सामर्थ्य न हो तो ऐसा कहे कि इसका मुझे ज्ञान नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो श्रोताओंका संदेह दूर नहीं होगा, तब कल्याण कैसे होगा ? और जिनमतकी प्रभावना भी नहीं हो सकेगी।

पुनश्च, वक्ता कैसा होना चाहिये कि जिसके अनीतिरूप लोकनिंद्य कार्योंकी प्रवृत्ति नहो; क्योंकि लोकनिंद्य कार्योंसे वह हास्यका स्थान हो जाये, तब उसका वचन कौन प्रमाण करे ? वह जिनधर्मको लजाये। पुनश्च, वक्ता कैसा होना चाहिये कि जिसका कुल हीन न हो, अंग हीन न हो, स्वर भंग न हो, मिष्ट वचन हो, प्रभुत्व हो; जिससे लोकमें मान्य हो — क्योंकि यदि ऐसा न हो तो उसे वक्तापनेकी महंतता शोभे नहीं — ऐसा वक्ता हो।वक्तामें ये गुण तो अवश्य चाहिये।

ऐसा ही आत्मानुशासनमें कहा हैः —

प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः,
प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः।
प्रायः प्रश्नसहः प्रभु परमनोहारी परानिन्दया,
ब्रूयाद्धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः।।५।।

अर्थः — जो बुद्धिमान हो, जिसने समस्त शास्त्रोंका रहस्य प्राप्त किया हो, लोक मर्यादाजिसके प्रगट हुई हो, आशा जिसके अस्त हो गई हो, कांतिमान हो, उपशमी हो, प्रश्न करनेसे पहले ही जिसने उत्तर देखा हो, बाहुल्यतासे प्रश्नोंको सहनेवाला हो, प्रभु हो, परकी तथा परके द्वारा अपनी निन्दारहितपनेसे परके मनको हरनेवाला हो, गुणनिधान हो, स्पष्ट मिष्ट जिसके वचन हों — ऐसा सभाका नायक धर्मकथा कहे।

पुनश्च, वक्ताका विशेष लक्षण ऐसा है कि यदि उसके व्याकरण-न्यायादिक तथा बड़े-बड़े जैन शास्त्रोंका विशेष ज्ञान हो तो विशेषरूपसे उसको वक्तापना शोभित हो। पुनश्च, ऐसा भी हो; परन्तु अध्यात्मरस द्वारा यथार्थ अपने स्वरूपका अनुभव जिसको न हुआ हो वह जिनधर्मका मर्म नहीं जानता, पद्धतिहीसे वक्ता होता है। अध्यात्मरसमय सच्चे जिनधर्मका स्वरूप उसके द्वारा कैसे प्रगट किया जाये ? इसलिये आत्मज्ञानी हो तो सच्चा वक्तापना होता है, क्योंकि प्रवचनसारमें ऐसा कहा है कि — आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयमभाव — यह तीनोंआत्मज्ञानसे शून्य कार्यकारी नहीं है।

पुनश्च, दोहापाहुड़में ऐसा कहा हैः —

पंडिय पंडिय पंडिय कण छोडि वि तुस कंडिया।
पय अत्थं तुट्ठोसि परमत्थ ण जाणइ मूढोसि।।

अर्थः — हे पांडे ! हे पांडे ! ! हे पांडे ! ! ! तू कणको छोड़कर तुस (भूसी) ही कूट रहाहै; तू अर्थ और शब्दमें सन्तुष्ट है, परमार्थ नहीं जानता; इसलिए मूर्ख ही है — ऐसा कहा है।

तथा चौदह विद्याओंमें भी पहले अध्यात्मविद्या प्रधान कही है। इसलिये जोअध्यात्मरसका रसिया वक्ता है, उसे जिनधर्मके रहस्यका वक्ता जानना। पुनश्च, जो बुद्धिऋद्धिके धारक हैं तथा अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञानके धनी वक्ता हैं, उन्हें महान वक्ता जानना। — ऐसे वक्ताओंके विशेष गुण जानना।

सो इन विशेष गुणोंके धारी वक्ताका संयोग मिले तो बहुत भला है ही, और न मिले तो श्रद्धानादिक गुणोंके धारी वक्ताओंके मुखसे ही शास्त्र सुनना। इस प्रकारके गुणोंके धारक मुनि अथवा श्रावक उनके मुखसे तो शास्त्र सुनना योग्य है, और पद्धतिबुद्धिसे अथवा शास्त्र सुननेके लोभसे श्रद्धानादिगुणरहित पापी पुरुषोंके मुखसे शास्त्र सुनना उचित नहीं है। कहा है किः

तं जिणआणपरेण य धम्मो सोयव्व सुगुरुपासम्मि।
अह उचिओ सद्धाओ तस्सुवएसस्स कहगाओ।।

अर्थः — जो जिनआज्ञा माननेमें सावधान है उसे निर्ग्रन्थ सुगुरु ही के निकट धर्म सुननायोग्य है, अथवा उन सुगुरु ही के उपदेशको कहनेवाला उचित श्रद्धानी श्रावक उससे धर्म सुनना योग्य है।

ऐसा जो वक्ता धर्मबुद्धिसे उपदेशदाता हो वही अपना तथा अन्य जीवोंका भला करे।और जो कषायबुद्धिसे उपदेश देता है वह अपना तथा अन्य जीवोंका बुरा करता है — ऐसा जानना।

इस प्रकार वक्ताका स्वरूप कहा।

श्रोताका स्वरूप:arrow_up:

अब श्रोताका स्वरूप कहते हैंः — भली होनहार है इसलिए जिस जीवको ऐसा विचारआता है कि मैं कौन हूँ ? मेरा क्या स्वरूप है ? यह चरित्र कैसे बन रहा है ? ये मेरे भाव होते हैं उनका क्या फ ल लगेगा ? जीव दुःखी हो रहा है सो दुःख दूर होनेका क्या उपाय है ? — मुझको इतनी बातोंका निर्णय करके कुछ मेरा हित हो सो करना — ऐसे विचारसेउद्यमवन्त हुआ है। पुनश्च, इस कार्यकी सिद्धि शास्त्र सुननेसे होती है ऐसा जानकर अति प्रीतिपूर्वक शास्त्र सुनता है; कुछ पूछना हो सो पूछता है; तथा गुरुओंके कहे अर्थको अपने अन्तरङ्गमें बारम्बार विचारता है और अपने विचारसे सत्य अर्थोंका निश्चय करके जो कर्त्तव्य हो उसका उद्यमी होता है — ऐसा तो नवीन श्रोताका स्वरूप जानना।

पुनश्च, जो जैनधर्मके गाढ़ श्रद्धानी हैं तथा नाना शास्त्र सुननेसे जिनकी बुद्धि निर्मलहुई है तथा व्यवहार — निश्चयादिको भलीभाँति जानकर जिस अर्थको सुनते हैं, उसे यथावत्निश्चय जानकर अवधारण करते हैं; तथा जब प्रश्न उठता है तब अति विनयवान होकर प्रश्न करते हैं अथवा परस्पर अनेक प्रश्नोत्तर कर वस्तु का निर्णय करते हैं; शास्त्राभ्यासमें अति आसक्त हैं; धर्मबुद्धिसे निंद्य कार्योंके त्यागी हुए हैं — ऐसे उन शास्त्रोंके श्रोता होना चाहिए |

श्रोताओंके विशेष लक्षण ऐसे हैं — यदि उसे कुछ व्याकरण-न्यायादिकका तथा बड़ेजैनशास्त्रोंका ज्ञान हो तो श्रोतापना विशेष शोभा देता है। तथा ऐसा भी श्रोता हो, किन्तु उसे आत्मज्ञान न हुआ हो तो उपदेशका मर्म नहीं समझ सके; इसलिये जो आत्मज्ञान द्वारा स्वरूपका आस्वादी हुआ है, वह जिनधर्मके रहस्यका श्रोता है। तथा जो अतिशयवन्त बुद्धिसे अथवा अवधि – मनःपर्ययसे संयुक्त हो तो उसे महान श्रोता जानना। ऐसे श्रोताओंके विशेषगुण हैं। ऐसे जिनशास्त्रोंके श्रोता होना चाहिये|

पुनश्च, शास्त्र सुननेसे हमारा भला होगा — ऐसी बुद्धिसे जो शास्त्र सुनते हैं, परन्तुज्ञानकी मंदतासे विशेष समझ नहीं पाते उनको पुण्यबन्ध होता है; विशेष कार्य सिद्ध नहीं होता। तथा जो कुल प्रवृत्तिसे अथवा पद्धतिबुद्धिसे अथवा सहज योग बननेसे शास्त्र सुनते हैं, अथवा सुनते तो हैं परन्तु कुछ अवधारण नहीं करते; उनके परिणाम अनुसार कदाचित् पुण्यबन्ध होता है, कदाचित् पापबन्ध होता है। तथा जो मद-मत्सर- भावसे शास्त्र सुनते हैं अथवा तर्क करनेका ही जिनका अभिप्राय है, तथा जो महंतताके हेतु अथवा किसी लोभादिक प्रयोजनके हेतुसे शास्त्र सुनते हैं, तथा जो शास्त्र तो सुनते हैं, परन्तु सुहाता नहीं है — ऐसे श्रोताओंको केवल पापबन्ध ही होता है।

ऐसा श्रोताओंका स्वरूप जानना। इसी प्रकार यथासम्भव सीखना, सिखाना आदिजिनके पाया जाये उनका भी स्वरूप जानना।

इस प्रकार शास्त्रका तथा वक्ता-श्रोताका स्वरूप कहा। सो उचित शास्त्रको उचितवक्ता होकर पढ़ना, उचित श्रोता होकर सुनना योग्य है।

मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रन्थ की सार्थकता:arrow_up:

अब, यह मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्र रचते हैं, उसकी सार्थकता दिखाते हैंः — इस संसार-अटवीमें समस्त जीव हैं वे कर्मनिमित्तसे उत्पन्न जो नाना प्रकारके दुःखउनसे पीड़ित हो रहे हैं; तथा वहाँ मिथ्या-अंधकार व्याप्त हो रहा है, उस कारण वहाँसे मुक्त होनेका मार्ग नहीं पाते, तड़प-तड़पकर वहाँ ही दुःख को सहते हैं।

ऐसे जीवोंका भला होनेके कारणभूत तीर्थंकर केवली भगवानरूपी सूर्यका उदय हुआ;उनकी दिव्यध्वनिरूपी किरणों द्वारा वहाँसे मुक्त होनेका मार्ग प्रकाशित किया। जिस प्रकार सूर्यको ऐसी इच्छा नहीं है कि मैं मार्ग प्रकाशित करूँ, परन्तु सहज ही उसकी किरणें फैलती हैं, उनके द्वारा मार्गका प्रकाशन होता है; उसी प्रकार केवली वीतराग हैं, इसलिये उनको ऐसी इच्छा नहीं है कि हम मोक्षमार्ग प्रगट करें, परन्तु सहज ही वैसे ही अघातिकर्मोके उदय से उनका शरीररूप पुद्गल दिव्यध्वनिरूप परिणमित होता है, उसके द्वारा मोक्षमार्गका प्रकाशन होता है।

पुनश्च, गणधरदेवोंको यह विचार आया कि जब केवलीसूर्यका अस्तपना होगा तबजीव मोक्षमार्गको कैसे प्राप्त करेंगे ? और मोक्षमार्ग प्राप्त किये बिना जीव दुःख सहेंगे; ऐसी करुणाबुद्धिसे अंगप्रकीर्णकादिरूप ग्रन्थ वे ही हुए महान् दीपक उनका उद्योत किया।

पुनश्च, जिस प्रकार दीपकसे दीपक जलानेसे दीपकों की परम्परा प्रवर्तती है, उसीप्रकार किन्हीं आचार्यादिकोंने उन ग्रन्थोंसे अन्य ग्रन्थ बनाये और फिर उन परसे किन्हींने अन्य ग्रन्थ बनाये। इस प्रकार ग्रन्थ होनेसे ग्रन्थों की परम्परा प्रवर्तती है। मैं भी पूर्व ग्रन्थोंसे यह ग्रन्थ बनाता हूँ।

पुनश्च, जिस प्रकार सूर्य तथा सर्व दीपक हैं वे मार्ग को एकरूप ही प्रकाशित करतेहैं, उसी प्रकार दिव्यध्वनि तथा सर्व ग्रन्थ हैं वे मोक्षमार्गको एकरूप ही प्रकाशित करते हैं; सो यह भी ग्रन्थ मोक्षमार्गको प्रकाशित करता है। तथा जिस प्रकार प्रकाशित करने पर भी जो नेत्ररहित अथवा नेत्रविकार सहित पुरुष हैं उनको मार्ग नहीं सूझता, तो दीपकके तो मार्गप्रकाशकपनेका अभाव हुआ नहीं है; उसी प्रकार प्रगट करने पर भी जो मनुष्य ज्ञानरहित हैं अथवा मिथ्यात्वादि विकार सहित हैं उन्हें मोक्षमार्ग नहीं सूझता, तो ग्रंथके तो मोक्षमार्गप्रकाशकपनेका अभाव हुआ नहीं है।

इस प्रकार इस ग्रंथका मोक्षमार्गप्रकाशक ऐसा नाम सार्थक जानना।

प्रश्न : — मोक्षमार्गके प्रकाशक ग्रन्थ पहले तो थे ही, तुम नवीन ग्रन्थ किसलिये बनाते हो ?

समाधान : — जिस प्रकार बड़े दीपकोंका तो उद्योत बहुत तेलादिकके साधनसे रहता है,जिनके बहुत तेलादिककी शक्ति न हो उनको छोटा दीपक जला दें तो वे उसका साधन रखकर उसके उद्योतसे अपना कार्य करें; उसी प्रकार बड़े ग्रन्थोंका तो प्रकाश बहुत ज्ञानादिकके साधनसे रहता है, जिनके बहुत ज्ञानादिककी शक्ति नहीं है उनको छोटा ग्रन्थ बना दें तो वे उसका साधन रखकर उसके प्रकाशसे अपना कार्य करें; इसलिये यह छोटा सुगम ग्रन्थ बनाते हैं।

पुनश्च, यहाँ जो मैं यह ग्रन्थ बनाता हूँ सो कषायोंसे अपना मान बढ़ानेके लिये अथवालोभ साधनेके लिये अथवा यश प्राप्त करनेके लिये अथवा अपनी पद्धति रखनेके लिये नहीं बनाता हूँ। जिनको व्याकरण-न्यायादिका, नय-प्रमाणादिकका तथा विशेष अर्थोंका ज्ञान नहीं है, उनके इस कारण बड़े ग्रन्थोंका अभ्यास तो बन नहीं सकता; तथा किन्हीं छोटे ग्रन्थोंका अभ्यास बने तो भी यथार्थ अर्थ भासित नहीं होता। — इस प्रकार इस समयमें मंदज्ञानवान्जीव बहुत दिखाई देते हैं, उनका भला होनेके हेतु धर्मबुद्धिसे यह भाषामय ग्रन्थ बनाता हूँ।

पुनश्च, जिस प्रकार बड़े दरिद्रीको अवलोकनमात्र चिन्तामणिकी प्राप्ति हो और वहअवलोकन न करे, तथा जैसे कोढ़ीको अमृत-पान कराये और वह न करे; उसी प्रकार संसार- पीड़ित जीवको सुगम मोक्षमार्गके उपदेशका निमित्त बने और वह अभ्यास न करे तो उसके अभाग्यकी महिमा हमसे तो नहीं हो सकती। उसकी होनहार ही का विचार करने पर अपनेको समता आती है। कहा है किः —

साहीणे गुरुजोगे जे ण सुणंतीह धम्मवयणाइ।
ते धिट्ठदुट्ठचित्ता अह सुहडा भवभयविहुणा।।

स्वाधीन उपदेशदाता गुरु का योग मिलने पर भी जो जीव धर्मवचनोंको नहीं सुनतेवे धीठ हैं और उनका दुष्ट चित्त है। अथवा जिस संसारभयसे तीर्थंकरादि डरे उस संसारभयसे रहित हैं वे बड़े सुभट हैं।

पुनश्च, प्रवचनसारमें भी मोक्षमार्गका अधिकार किया है, वहाँ प्रथम आगमज्ञान हीउपादेय कहा है। सो इस जीवका तो मुख्य कर्त्तव्य आगमज्ञान है। उसके होने से तत्त्वों का श्रद्धान होता है, तत्त्वों का श्रद्धान होने से संयमभाव होता है, और उस आगमसे आत्मज्ञानकी भी प्राप्ति होती है; तब सहज ही मोक्षकी प्राप्ति होती है।

पुनश्च, धर्मके अनेक अंङ्ग हैं उनमें एक ध्यान बिना उससे ऊँचा और धर्मका अंगनहीं है; इसलिये जिस-तिस प्रकार आगम-अभ्यास करना योग्य है।

पुनश्च, इस ग्रन्थका तो वाँचना, सुनना, विचारना बहुत सुगम है — कोई व्याकरणादिकका भी साधन नहीं चाहिये; इसलिये अवश्य इसके अभ्यास में प्रवर्तो। तुम्हारा कल्याण होगा।

— इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्रमें पीठबन्ध प्ररूपक प्रथम अधिकार समाप्त हुआ।।१।।

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दूसरा अधिकार(संसार-अवस्थाका स्वरूप)

दोहा —
मिथ्याभाव अभावतैं, जो प्रगट निजभाव,
सो जयवंत रहौ सदा, यह ही मोक्ष उपाव।

अब इस शास्त्रमें मोक्षमार्गका प्रकाश करते हैं। वहाँ बन्धसे छूटनेका नाम मोक्ष है।इस आत्माको कर्मका बन्धन है और उस बन्धनसे आत्मा दुःखी हो रहा है, तथा इसके दुःख दूर करने ही का निरन्तर उपाय भी रहता है, परन्तु सच्चा उपाय प्राप्त किये बिना दुःख दूर नहीं होता और दुःख सहा भी नहीं जाता; इसलिये यह जीव व्याकुल हो रहा है।

इस प्रकार जीवको समस्त दुःखका मूलकारण कर्मबन्धन है। उसके अभावरूप मोक्षहै वही परमहित है, तथा उसका सच्चा उपाय करना वही कर्तव्य है; इसलिये इस ही का इसे उपदेश देते हैं। वहाँ जैसे वैद्य है सो रोग सहित मनुष्यको प्रथम तो रोगका निदान बतलाता है कि इस प्रकार यह रोग हुआ है; तथा उस रोगके निमित्तसे उसके जो-जो अवस्था होती हो वह बतलाता है। उससे निश्चय होता है कि मुझे ऐसा ही रोग है। फि र उस रोगको दूर करनेका उपाय अनेक प्रकारसे बतलाता है और उस उपायकी उसे प्रतीति कराता है — इतना तो वैद्यका बतलाना है। तथा यदि वह रोगी उसका साधनकरे तो रोगसे मुक्त होकर अपने स्वभावरूप प्रवर्ते, यह रोगीका कर्त्तव्य है।

उसी प्रकार यहाँ कर्मबन्धनयुक्त जीवको प्रथम तो कर्मबन्धनका निदान बतलाते हैंकि ऐसे यह कर्मबन्धन हुआ है; तथा उस कर्मबन्धनके निमित्तसे इसके जो-जो अवस्था होती है वह बतलाते हैं। उससे जीवको निश्चय होता है कि मुझे ऐसा ही कर्मबन्धन है। तथा उस कर्मबन्धनके दूर होनेका उपाय अनेक प्रकारसे बतलाते हैं और उस उपायकी इसे प्रतीत कराते हैं — इतना तो शास्त्रका उपदेश है। यदि यह जीव उसका साधन करे तो कर्मबन्धनसेमुक्त होकर अपने स्वभावरूप प्रवर्ते, यह जीवका कर्त्तव्य है।

कर्मबन्धनका निदान

सो यहाँ प्रथम ही कर्मबन्धनका निदान बतलाते हैंः —

कर्मबन्धन होनेसे नाना औपाधिक भावोंमें परिभ्रमणपना पाया जाता है, एकरूप रहनानहीं होता; इसलिये कर्मबन्धन सहित अवस्थाका नाम संसार-अवस्था है। इस संसार- अवस्थामें अनन्तान्त जीवद्रव्य हैं वे अनादि ही से कर्मबन्धन सहित हैं। ऐसा नहीं है कि पहले जीव न्यारा था और कर्म न्यारा था, बादमें इनका संयोग हुआ। तो कैसे हैं? — जैसे मेरुगिरिआदि अकृत्रिम स्कन्धोंमें अनन्त पुद्गलपरमाणु अनादिसे एकबन्धनरूप हैं, फि र उनमेंसे कितने परमाणु भिन्न होते हैं, कितने ही नये मिलते हैं, इस प्रकार मिलना – बिछुड़ना होता है। उसीप्रकार इस संसार में एक जीवद्रव्य और अनन्त कर्मरूप पुद्गलपरमाणु उनका अनादिसे एकबन्धनरूप है, फि र उनमें कितने ही कर्मपरमाणु भिन्न होते हैं, कितने ही नये मिलते हैं। — इस प्रकार मिलना - बिछुड़ना होता रहता है।

कर्मोंके अनादिपनेकी सिद्धि

यहाँ प्रश्न है कि — पुद्गलपरमाणु तो रागादिकके निमित्तसे कर्मरूप होते हैं, अनादिकर्मरूप कैसे हैं? समाधानः — निमित्त तो नवीन कार्य हो उसमें ही सम्भव है, अनादि अवस्थामेंनिमित्तका कुछ प्रयोजन नहीं है। जैसे — नवीन पुद्गलपरमाणुओंका बंधान तो स्निग्ध-रूक्ष गुणकेअंशों ही से होता है और मेरुगिरि आदि स्कन्धोंमें अनादि पुद्गलपरमाणुओंका बंधान है, वहाँ निमित्तका क्या प्रयोजन है? उसी प्रकार नवीन परमाणुओंका कर्मरूप होना तो रागादिक ही से होता है और अनादि पद्गलपरमाणुओंकी कर्मरूप ही अवस्था है, वहाँ निमित्तका क्या प्रयोजन है? तथा यदि अनादिमें भी निमित्त मानें तो अनादिपना रहता नहीं; इसलिये कर्मका बन्ध अनादि मानना। सो तत्त्वप्रदीपिका प्रवचनसार शास्त्रकी व्याख्यामें जो सामान्यज्ञेयाधिकार है वहाँ कहा हैः — रागादिकका कारण तो द्रव्यकर्म है और द्रव्यकर्मका कारण रागादिक हैं।तब वहाँ तर्क किया है कि — ऐसे तो इतरेतराश्रयदोष लगता है — वह उसके आश्रित, वहउसके आश्रित, कहीं रुकाव नहीं है। तब उत्तर ऐसा दिया हैः —

नैवं अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्म्मसम्बन्धस्य तत्र हेतुत्वेनोपादानात्।

अर्थः — इस प्रकार इतरेतराश्रयदोष नहीं है; क्योंकि अनादिका स्वयंसिद्ध द्रव्यकर्मकासम्बन्ध है उसका वहाँ कारणपनेसे ग्रहण किया है।

ऐसा आगममें कहा है तथा युक्तिसे भी ऐसा ही संभव है कि — कर्मके निमित्त बिनापहले जीवको रागादिक कहे जायें तो रागादिक जीवका एक स्वभाव हो जायें; क्योंकि परनिमित्तके बिना हो उसीका नाम स्वभाव है।

इसलिये कर्मका सम्बन्ध अनादि ही मानना।
यहाँ प्रश्न है कि — न्यारे-न्यारे द्रव्य और अनादिसे उनका सम्बन्ध — ऐसा कैसे संभव है?
समाधान : — जैसे मूल ही से जल — दूधका, सोना — किट्टिकका, तुष — कणका तथातेल — तिलका सम्बन्ध देखा जाता है, नवीन इनका मिलाप हुआ नहीं है; वैसे ही अनादिसेजीवकर्मका सम्बन्ध जानना, नवीन इनका मिलाप हुआ नहीं है। फि र तुमने कहा — ‘कैसे संभव है?’ अनादिसे जिस प्रकार कई भिन्न द्रव्य हैं, वैसे ही कई मिले द्रव्य हैं; इस प्रकार संभव होनेमें कुछ विरोध तो भासित नहीं होता।

फिर प्रश्न है कि — सम्बन्ध अथवा संयोग कहना तो तब संभव है जब पहले भिन्नहों और फि र मिलें। यहाँ अनादिसे मिले जीव-कर्मोंका सम्बन्ध कैसे कहा है?
समाधान : — अनादिसे तो मिले थे; परन्तु बादमें भिन्न हुए तब जाना कि भिन्न थेतो भिन्न हुए, इसलिये पहले भी भिन्न ही थे — इस प्रकार अनुमानसे तथा केवलज्ञानसे प्रत्यक्षभिन्न भासित होते हैं। इससे, उनका बन्धन होने पर भी भिन्नपना पाया जाता है। तथा उस भिन्नताकी अपेक्षा उनका सम्बन्ध अथवा संयोग कहा है; क्योंकि नये मिले, या मिले ही हों, भिन्न द्रव्योंके मिलापमें ऐसे ही कहना संभव है।

इस प्रकार इन जीव-कर्मका अनादि सम्बन्ध है।

जीव और कर्मों की भिन्नता

वहाँ जीवद्रव्य तो देखने-जाननेरूप चेतनागुणका धारक है तथा इन्द्रियगम्य न होनेयोग्य अमूर्त्तिक है, संकोच-विस्तार शक्तिसहित असंख्यातप्रदेशी एकद्रव्य है। तथा कर्म है वह चेतनागुणरहित जड़ है और मूर्त्तिक है, अनन्त पुद्गलपरमाणुओंका पिण्ड है, इसलिए एकद्रव्य नहीं है। इस प्रकार ये जीव और कर्म हैं — इनका अनादिसम्बन्ध है, तो भी जीवका कोईप्रदेश कर्मरूप नहीं होता और कर्मका कोई परमाणु जीवरूप नहीं होता; अपने-अपने लक्षणको धारण किये भिन्न-भिन्न ही रहते हैं। जैसे सोने-चाँदीका एक स्कंध हो, तथापि पीतादि गुणोंको धारण किए सोना भिन्न रहता है और श्वेतादि गुणोंको धारण किये चाँदी भिन्न रहती है — वैसे भिन्न जानना।

अमूर्तिक आत्मासे मूर्तिक कर्मोंका बंधान किस प्रकार होता है?

यहाँ प्रश्न है कि — मूर्तिक-मूर्तिकका तो बंधान होना बने, अमूर्तिक-मूर्तिकका बंधानकैसे बने?

समाधानः — जिस प्रकार व्यक्त – इन्द्रियगम्य नहीं हैं, ऐसे सूक्ष्म पुद्गल तथा व्यक्त-इन्द्रियगम्य हैं, ऐसे स्थूल पुद्गल — उनका बंधान होना मानते हैं; उसी प्रकार जो इन्द्रियगम्यहोने योग्य नहीं है, ऐसा अमूर्तिक आत्मा और इन्द्रियगम्य होने योग्य मूर्तिक कर्म — इनकाभी बंधान होना मानना। तथा इस बंधानमें कोई किसीको करता तो है नहीं। जब तक बंधान रहे तब तक साथ रहें — बिछुड़ें नहीं और कारण-कार्यपना उनके बना रहे; इतना हीयहाँ बंधान जानना। सो मूर्तिक-अमूर्तिकके इस प्रकार बंधान होनेमें कुछ विरोध है नहीं।

इस प्रकार जैसे एक जीवको अनादि कर्मसम्बन्ध कहा उसी प्रकार भिन्न-भिन्न अनंतजीवों के जानना।

घाति-अघाति कर्म और उनका कार्य

तथा वे कर्म ज्ञानावरणादि भेदोंसे आठ प्रकारके हैं। वहाँ चार घातिया कर्मोंके निमित्तसेतो जीवके स्वभावका घात होता है। ज्ञानावरण-दर्शनावरणसे तो जीवके स्वभाव जो ज्ञान- दर्शन उनकी व्यक्त्तता नहीं होती; उन कर्मोंके क्षयोपशमके अनुसार किंचित् ज्ञान-दर्शनकी व्यक्त्तता रहती है। तथा मोहनीयसे जो जीवके स्वभाव नहीं हैं ऐसे मिथ्याश्रद्धान व क्रोध, मान, माया, लोभादिक कषाय उनकी व्यक्त्तता होती है। तथा अन्तरायसे जीवका स्वभाव, दीक्षा लेने की सामर्थ्यरूप वीर्य उसकी व्यक्त्तता नहीं होती; उसके क्षयोपशमके अनुसार किंचित् शक्ति होती है।

इस प्रकार घातिया कर्मोके निमित्तसे जीवके स्वभावका घात अनादि ही से हुआ है।ऐसा नहीं है कि पहले तो स्वभावरूप शुद्ध आत्मा था, पश्चात् कर्म-निमित्तसे स्वभावघात होनेसे अशुद्ध हुआ।

यहाँ तर्क है कि — घात नाम तो अभावका है; सो जिसका पहले सद्भाव हो उसकाअभाव कहना बनता है। यहाँ स्वभावका तो सद्भाव है ही नहीं, घात किसका किया?

समाधान : — जीवमें अनादि ही से ऐसी शक्ति पायी जाती है कि कर्मका निमित्त नहो तो केवलज्ञानादि अपने स्वभावरूप प्रवर्तें; परन्तु अनादि ही से कर्मका सम्बन्ध पाया जाता है, इसलिये उस शक्तिकी व्यक्तता नहीं हुई। अतः शक्ति-अपेक्षा स्वभाव है, उसका व्यक्त्त न होने देनेकी अपेक्षा घात किया कहते हैं।

तथा चार अघातिया कर्म हैं, उनके निमित्तसे इस आतमाको बाह्य सामग्रीका सम्बन्धबनता है। वहाँ वेदनीयसे तो शरीरमें अथवा शरीरसे बाह्य नानाप्रकार सुख-दुःखके कारण परद्रव्योंका संयोग जुड़ता है; आयुसे अपनी स्थिति-पर्यन्त प्राप्त शरीरका सम्बन्ध नहीं छूट सकता; नामसे गति, जाति, शरीरादिक उत्पन्न होते हैं; और गोत्रसे उच्च-नीच कुलकी प्राप्ति होती है।

इस प्रकार अघाति कर्मोंसे बाह्य सामग्री एकत्रित होती है, उसके द्वारा मोहउदयकासहकार होने पर जीव सुखी-दुःखी होता है। और शरीरादिकके सम्बन्धसे जीवके अमूर्त्तत्वादिस्वभाव अपने स्व-अर्थको नहीं करते — जैसे कोई शरीरको पकड़े तो आत्मा भीपकड़ा जाये। तथा जब तक कर्मका उदय रहता है तब तक बाह्य सामग्री वैसी ही बनी रहे, अन्यथा नहीं हो सके — ऐसा इन अघाति कर्मोंका निमित्त जानना।

निर्बल जड़ कर्मों द्वारा जीवके स्वभावका घात तथा बाह्य सामग्री मिलना

यहाँ कोई प्रश्न करे कि — कर्म तो जड़ हैं, कुछ बलवान नहीं हैं; उनसे जीवकेस्वभावका घात होना व बाह्य सामग्रीका मिलना कैसे संभव है?

समाधानः — यदि कर्म स्वयं कर्त्ता होकर उद्यमसे जीवके स्वभावका घात करे, बाह्यसामग्रीको मिलावे तब तो कर्मके चेतनापना भी चाहिये और बलवानपना भी चाहिये; सो तो है नहीं, सहज ही निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। जब उन कर्मोंका उदयकाल हो; उसकालमें स्वयं ही आत्मा स्वभावरूप परिणमन नहीं करता, विभावरूप परिणमन करता है, तथा जो अन्य द्रव्य हैं वै वैसे ही सम्बन्धरूप होकर परिणमित होते हैं।

जैसे — किसी पुरुषके सिर पर मोहनधूल पड़ी है उससे वह पुरुष पागल हुआ; वहाँउस मोहनधूलको ज्ञान भी नहीं था और बलवानपना भी नहीं था, परन्तु पागलपना उस मोहनधूल ही से हुआ देखते हैं। वहाँ मोहनधूलका तो निमित्त है और पुरुष स्वयं ही पागल हुआ परिणमित होता है — ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक बन रहा है।

तथा जिस प्रकार सूर्यके उदयके कालमें चकवा-चकवियोंका संयोग होता है; वहाँ रात्रिमेंकिसीने द्वेषबुद्धिसे बलजबरी करके अलग नहीं किये हैं, दिनमें किसीने करुणाबुद्धिसे लाकर मिलाये नहीं हैं, सूर्योदयका निमित्त पाकर स्वयं ही मिलते हैं। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक बन रहा है। उस ही प्रकार कर्मका भी निमित्त-नैमित्तिक भाव जानना। — इस प्रकार कर्म के उदय से अवस्था है।

नवीन बन्ध विचार

वहाँ नवीन बन्ध कैसे होता है सो कहते हैंः — -जैसे सूर्यका प्रकाश है सो मेघपटलसेजितना व्यक्त्त नहीं है उतनेका तो उस कालमें अभाव है, तथा उस मेघपटलके मन्दपनेसे जितना प्रकाश प्रगट है वह उस सूर्यके स्वभावका अंश है — मेघपटलजनित नहीं है। उसीप्रकार जीवका ज्ञान-दर्शन-वीर्य स्वभाव है; वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तरायके निमित्तसे जितना व्यक्त्त नहीं है उतनेका तो उस कालमें अभाव है। तथा उन कर्मोंके क्षयोपशमसे जितने ज्ञान, दर्शन, वीर्य प्रगट हैं वह उस जीवके स्वभावका अंश ही है, कर्मजनित औपाधिकभाव नहीं है। सो ऐसे स्वभावके अंशका अनादिसे लेकर कभी अभाव नहीं होता। इस ही के द्वारा जीवके जीवत्वपने का निश्चय किया जाता है कि यह देखनेवाली जाननेवाली शक्तिको धरती हुई वस्तु है वही आत्मा है।

तथा इस स्वभावसे नवीन कर्मका बन्ध नहीं होता; क्योंकि निजस्वभाव ही बन्धकाकारण हो तो बन्धका छूटना कैसे हो? तथा उन कर्मोंके उदयसे जितने ज्ञान, दर्शन, वीर्य अभावरूप हैं उनसे भी बन्ध नहीं है; क्योंकि स्वयं ही का अभाव होने पर अन्यको कारण कैसे हों? इसलिये ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तरायके निमित्तसे उत्पन्न भाव नवीन कर्मबन्धके कारण नहीं हैं।

तथा मोहनीय कर्मके द्वारा जीवको अयथार्थ-श्रद्धानरूप मिथ्यात्वभाव होता है तथा क्रोध,मान, माया, लोभादिक कषाय होते हैं। वे यद्यपि जीवके अस्तित्वमय हैं, जीवसे भिन्न नहीं हैं, जीव ही उनका कर्त्ता है, जीवके परिणमनरूप ही वे कार्य हैं; तथापि उनका होना मोहकर्मके निमित्तसे ही है, कर्मनिमित्त दूर होने पर उनका अभाव ही होता है, इसलिये वे जीवके निजस्वभाव नहीं, औपाधिक भाव हैं। तथा उन भावों द्वारा नवीन बन्ध होता है; इसलिये मोहके उदयसे उत्पन्न भाव बन्धके कारण हैं।

तथा अघातिकर्मोंके उदयसे बाह्य सामग्री मिलती है, उसमें शरीरादिक तो जीवकेप्रदेशोंसे एकक्षेत्रावगाही होकर एक बंधानरूप होते हैं और धन, कुटुम्बादिक आत्मासे भिन्नरूप हैं, इसलिये वे सब बन्धके कारण नहीं हैं; क्योंकि परद्रव्य बन्धका कारण नहीं होता। उनमें आत्माको ममत्वादिरूप मिथ्यात्वादिभाव होते हैं वही बन्धका कारण जानना।

योग और उससे होनेवाले प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध

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योग और उससे होनेवाले प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध

वहाँ इतना जानना - नामकर्म के उदय से शरीर - वचन - मन उतपन्न होते है; उनकी चेष्टा के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों का चंचलपना होता है, उससे आत्मा को पुद्गलवर्गणा से एक बंधान होने की शक्ति होती है,उसका नाम योग है; उसके निमित्त से प्रतिसमय कर्मरूप होने योग्य अनंत परमाणुओं का ग्रहण होता है।वहां अल्प योग हो तो थोड़े परमाणुओं का ग्रहण होता है और बहुत योग हो तो बहुत परमाणुओं का ग्रहण होता है।
तथा एक समय मे जो पुद्गल परमाणु ग्रहण करें, उनमें ज्ञानवर्णादि मूल प्रकृतियों का,जैसे सिद्धांत में कहा है,वैसे बँटवारा होता है; उस बँटवारे के अनुसार वे परमाणु उन प्रकृतियों रूप स्वयं ही परिणमित होते है।
विशेष इतना - योग दो प्रक्रर है - शुभ योग व अशुभ योग। वहां धर्म के अंगों में मन - वचन - काय की प्रवृति होने पर तो शुभयोग होता है और अधर्म के अंगों में उनकी प्रवृति होने पर अशुभयोग होता है।वहां शुभयोग हो या अशुभयोग हो सम्यक्त्व प्राप्त किए बीना घाती कर्म की सर्व प्रकृतियों का निरंतर बंध होता ही है ; किसी भी समय में प्रकृतियों का बंध हुए बिना नही रहता । इतना विशेष है कि मोहनीय के हास्य-शोक के युगल में,रति - अरति के युगल में और तीनों वेदों में एक काल मे एक-एक ही प्रकृति का बंध होता है।
वहां अघाती कर्मो की प्रकृतियों में शुभयोग होने पर सतावेदनीयादि पुण्यप्रकृतियो का बंध होता है;अशुभयोग होने पर असातवेदनीयादी पाप प्रकृतियों का बन्ध होता है।
इस प्रकार योग के निमित्त से कर्मो का आगमन होता है;इसीलिए ‘योग’ है, वह ‘आश्रव’ है तथा उसके द्वारा ग्रहण हुए कर्म परमाणुओं का नाम ‘प्रदेश’ है; उनका बंध हुआ और उनमें मूल - उत्तर प्रकृतियों का विभाग हुआ; इसीलिए योगों द्वारा प्रदेशबन्ध व प्रकृति बंध होना जानना।
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