मेरी सुध लीजै रिषभस्वाम! मोहि कीजै शिवपथगाम । Meri Sudh Leejai RishabhSwam

मेरी सुध लीजै रिषभस्वाम! मोहि कीजै शिवपथगाम । टेक. ।।

मैं अनादि भवभ्रमत दुखी अब, तुम दुख मेटत कृपाधाम ।
मोहि मोह घेरा कर चेरा, पेरा चहुँगति विदित ठाम ।।१।।

विषयन मन ललचाय हरी मुझ, शुद्धज्ञान-संपति ललाम ।
अथवा यह जड़ को न दोष मम, दुखसुखता, परनति सुकाम ।।२।।
भाग जगे अब चरन जपे तुम, वच सुनके गहे सुगुनग्राम ।
परमविराग ज्ञानमय मुनिजन, जपत तुमारी सुगुनदाम ।।३ ।।

निर्विकार संपति कृति तेरी, छविपर वारों कोटिकाम |
भव्यानिके भव हारन कारन, सहज यथा तमहरन घाम ।।४।।

तुम गुनमहिमा कथन करनको, गिनत गनी निजबुद्धि खाम ।
‘दोलतनी’ अज्ञान परनती, हे जगत्राता कर विराम ।।५।।

रचयिता: पंडित श्री दौलतराम जी

सोर्स: दौलत विलास

हे ऋषभदेव, हे स्वामी । मेरी सुधि लीजिए, मुझे भी मोक्ष-पथ पर गमन करने योग्य बनाइए । मोक्षपथ का अनुगामी कीजिए ।

मैं अनादि काल से भवभ्रमण करते-करते अब बहुत दुःखी हो गया हूँ। मेरा दुःख मेटनेवाले आप ही दयालु हैं। मुझे मोह ने घेरकर अपना दास बना लिया हैं और चारों गतियों के परिचित स्थानों में भटकाया है।

विषयों में मेरे मन को ललचाकर, मेरे शुद्ध ज्ञान व संयम की सुंदर निधि को हर लिया है, छीन लिया है। इसमें पुद्गल जड़ का कोई दोष नहीं हैं। मेरा ही दोष है, मेरा दुःखी व सुखी होना मेरी ही परिणति है।

अब मेरा भाग्योदय हुआ है कि मुझे आपके चरणों में शरण मिली है, आपके चरणों की शरण में मैं आया हूँ और आपके वचन सुनकर अपने गुणों का भान हुआ है, गुण ग्रहण किए हैं। वीतरागी, ज्ञानी व मुनिगण आदि सब आपके गुणों की माला जाते हैं

ज्ञान का विकाररहित होना ही आपकी सुन्दर कृति/रचना है। आपकी सुन्दर छवि पर करोड़ों कामदेवों की भी बलिहारी है। भव्यजनों की भवपीड़ा को हरने के लिए आप श्रेष्ठ निमित्त हैं और अज्ञान अंधकार को हरनेवाले प्रकृत सूर्य हैं । आपके गुणों की महिमा का ज्ञान करना व उस रूप आचरण करने के लिए उन गुणों की गिनती करने में गणधर भी सक्षम नहीं है। दौलतराम जी कहते हैं कि हे जग के दुःखों से छुड़ानेवाले, मेरे अज्ञान की ऐसी परिणति को अब आप विराम दो, समाप्त करो ।

अर्थ सोर्स: दौलत भजन सौरभ