(तर्ज-जैसो समकित महासुखकार, दूजा कोई नहीं…)
मेरी परिणति में आनन्द अपार, नाथ तेरे दर्शन से ।
दर्शन से,नाथ तेरे दर्शन से ।
मूरति प्रभु कल्याण रूप है,स्वानुभूति की निमित्तभूत है।
भेदविज्ञान हो सुखकार, नाथ तेरी वाणी से ।।1।।
अनादिकाल का मोह नशाया, निज स्वभाव प्रत्यक्ष लखाया।
प्रभु मोह नशे दु:खकार,शुद्धातम दर्शन से ।।2।।
रागादिक अब दुःखमय जाने, ज्ञानभाव सुखमय पहिचाने।
मैं तो आज लखो भव पार, नाथ तेरे दर्शन से ।।3।।
तिहुँलोक तिहुँकाल मँझारा, निज शुद्धातम एक निहारा।
शिवस्वरूप शिवकार, नाथ तेरे दर्शन से।4।।
तोड़ सकल जग द्वंद-फंद प्रभु, मैं भी निज में रम जाऊँ विभु।
भाव यही अविकार, नाथ तेरे दर्शन से ।।5।।