मेरा पलने में झूले ललना… मेरा पलने में ॥
स्वर्णमयी अरु रत्न जड़ित यह स्वर्गपुरी से आया है;
इस पलने में बैठ झूलने सुरपति मन ललचाया है;
किन्तु पुण्य है नेमिकुंवर का… इसमें शोभे ललना ।।(1)
बड़े प्यार से आज झुलाऊँ, अपने प्यारे लाल को;
सप्त स्वरों से गीत सुनाऊँ, तीर्थङ्कर सुत बाल को ;
शुद्ध बुद्ध आनन्द कन्द मैं… अनुभव करता ललना ॥(2)
तन-मन झूमे पिताश्री का अवसर है आनन्द का;
सोच रहे हैं पुत्र हमारा रसिया आनन्दकन्द का;
ज्ञानानन्द झूले में झूले… देखो मेरा ललना ॥(3)
देवों के सङ्ग क्रीड़ा करता सब झूले आनन्द में;
किन्तु पुत्र की अन्तर-परिणति झूले परमानन्द में;
गुणस्थान षष्टम-सप्तम में… कब झूलेगा ललना ॥(4)
अन्तर के आनन्द में झूले जाने ज्ञान स्वभाव को;
मुझसे भिन्न सदा रहते हैं पुण्य-पाप के भाव तो;
भेदज्ञान की डोरी खीचें… देखो माँ का ललना ॥(5)
ज्ञान मात्र का अनुभव करता रमे नहीं परज्ञेय में;
दृष्टि सदा स्थिर रहती है चिदानन्दमय ध्येय में;
निज अन्तर में केलि करता… देखो मेरा ललना ॥(6)