मकर संक्रांति और जैन धर्म | Makar Sankranti & Jainism

जैन धर्म और मकर संक्रांति

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मकर संक्रांति एक लोक पर्व है लेकिन जैन धर्म में इस पर्व का कोई विशेष महत्त्व नहीं है ।
आज हम आगम प्रमाण और तर्क से इस बात को सिद्ध करने की कोशिश करेंगे
कुछ जैन श्रावकों की मान्यता यह बन गई है की मकर संक्रांति के दिन भरत क्षेत्र के चक्रवर्ती सूर्य में स्थित जिन बिम्बों के दर्शन करते हैं और इसलिए कुछ जैन श्रावक मकर संक्रांति को जैन धर्म से जोड़ देते हैं लेकिन यह एक मिथ्या धारणा है।

आगम प्रमाण क्रमांक 1

श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती विरचित त्रिलोकसार गाथा संख्या ३८९ से ३९१ तक में यह लिखा है कि

  • प्रथम परिधि में भ्रमण करता हुआ सूर्य जब निषध पर्वत के ऊपर आता है तब अयोध्या नगरी के मध्य में स्थित चक्रवर्ती के द्वारा देखा जाता है।
  • जब सूर्य निषध पर्वत के ऊपर अपनी प्रथम वीथी (गली) में होता है तब वह भरत क्षेत्र से ४७२६३ ७/२० योजन दूर होता है और यही चक्षुस्पर्श क्षेत्र का उत्कृष्ट प्रमाण है। चक्रवर्ती के चक्षुओं में इतनी उत्कृष्ट क्षमता होती है और उसी वजह से वो सूर्य में स्थित जिन बिम्बों के दर्शन कर लेते हैं।
    इस विषय को समझने के लिए सूर्य के गमन के कुछ तथ्यों को जानना आवश्यक है |

आगम प्रमाण क्रमांक 2

श्री यतिवृषभाचार्य विरचित तिलोयपण्णत्ती अध्याय ७ की

  • गाथा संख्या ४३० से ४३३ तक के विशेष अर्थ में यह स्पष्ट उल्लेख आया है कि जब श्रावण मास में सूर्य की कर्क संक्रांति होती है और सूर्य अपनी अभ्यन्तर वीथी (प्रथम गली) में स्थित होता है तब अयोध्या नगरी के मध्य में अपने महल के ऊपर स्थित भरत आदि चक्रवर्ती *निषध पर्वत के ऊपर उदित होते हुए सूर्य बिम्ब को देखते हैं और सूर्य विमान में स्थित जिन बिम्बों के दर्शन करते हैं।
  • गाथा संख्या २१८: सूर्य १८० योजन जम्बूद्वीप में और ३३० योजन लवण समुद्र में गमन करता है (अर्थात सूर्य प्रथम गली से अंतिम १८४ गली तक कुल ५१० योजन गमन करता है)
  • गाथा संख्या २२१: सूर्य के प्रथम पथ और सुदर्शन मेरु के बीच का अंतराल ४४८२० योजनों प्रमाण है।
  • गाथा संख्या २३२: सूर्य के बाह्य आखरी पथ और सुदर्शन मेरु के बीच ४५३३० योजनों प्रमाण अंतर है
  • प्रति वर्ष माघ महीने में सूर्य अपनी अंतिम १८४ गली में पहुँच जाता है और लवण समुद्र के ऊपर होता है जिसके बाद सूर्य का दक्षिणायन से उत्तरायण गमन होता है (ये मकर संक्रांति के आसपास ही होता है)
  • प्रति वर्ष श्रावण महीने में सूर्य अपनी प्रथम गली में पहुँच जाता है और निषध पर्वत के ऊपर होता है जिसके बाद सूर्य का उत्तरायण से दक्षिणायन गमन होता है (ये कर्क संक्रांति के आसपास ही होता है)
  • सूर्य जब उपरोक्त प्रथम वीथी में होता है तभी निषध पर्वत के ऊपर उदय काल में भरत क्षेत्र से उसका अंतर ४७२६३ ७/२० योजन होता है जो चक्षु इन्द्रिय का उत्कृष्ट क्षेत्र है। इसके आगे की प्रत्येक वीथी (गली) में सूर्य का गमन होने के बाद उसका अंतर उदय क्षेत्र की अपेक्षा भरत क्षेत्र से बढ़ता जाता है और वो मनुष्य के चक्षु इन्द्रिय के उत्कृष्ट क्षेत्र ४७२६३ ७/२० योजन से और दूर जाने से उदय काल के समय नेत्रों से नहीं दिखता है ।

अब इन आगम के प्रमाणों के आधार से इस विषय को तर्क से सिद्ध करते हैं।

  • उपरोक्त आगम प्रमाणों का रहस्य दो ही तथ्यों पर आधारित है और वो है सूर्य विमान का आकर और उदय काल के वक़्त सूर्य की स्थिति~

  • सूर्य विमान का आकार सिद्ध शिला की तरह है अथवा उलटे किए हुए छत्र के समान है। कुछ इस आकार का है सूर्य विमान :tea: ये नीचे से ठोस अर्ध गोलाकार और ऊपर से समतल है।

  • सूर्य विमान पर जो अकृत्रिम जिनमंदिर हैं वो सूर्य के ऊपर समतल हिस्से पर बने हुए हैं ।

  • अब माघ माह में मकर संक्रांति के दिन सूर्य विमान दक्षिणायण के चरम पर होता है और अपनी अंतिम वीथी (गली) में लवण समुद्र के ऊपर होता है और उस समय सूर्य उदय काल में मनुष्य के चक्षु इन्द्रिय के उत्कृष्ट क्षेत्र ४७२६३ ७/२० यजनों से अधिक दूरी पर होता है इसलिए भरत क्षेत्र के चक्रवर्ती उस वक़्त सूर्य को उदय काल में देख ही नहीं सकते।

  • सूर्य उदय काल से जब उसकी वीथी में आगे गमन करता है और कोई ये माने की उदय काल के बाद अथवा भरत क्षेत्र के पास से सूर्य के भ्रमण करते वक़्त सूर्य विमान के ऊपरी समतल हिस्से पर स्थित जिन मंदिरों और उनके अंदर स्थित जिन बिम्बों के दर्शन हो सकते है तो यह गलत धारणा है । क्योंकि उदय काल के बाद अथवा जब सूर्य भरत क्षेत्र के नजदीक हो तब भरत क्षेत्र से केवल सूर्य का निचला ठोस अर्ध गोलाकार हिस्सा ही दिखेगा। सूर्य विमान के ऊपर का समतल हिस्सा उस वक़्त दिख ही नहीं सकता जिसके ऊपर जिन मंदिर स्थित हैं।

  • जब सूर्य उत्तरायण की दिशा में श्रावण माह में अपनी प्रथम विथी (गली) में पहुँचता है और निषध पर्वत के ऊपर उदित होता है तब सूर्य के ऊपर के समतल हिस्से पर स्थित जिन मंदिर और जिन बिम्ब चक्रवर्ती को कर्क संक्रांति के दिन दिखाई देते हैं क्योंकि जब सूर्य अपनी प्रथम विथी (गली) में निषध पर्वत के ऊपर उदय होता है तो उस काल में भरत क्षेत्र से ४७२६३ ७/२० योजन दूर होता है तो सूर्य विमान के ऊपर का समतल हिस्सा उद्घाटित होकर चक्षु इन्द्रिय के गोचर होने लगता है क्योंकि यही मनुष्य के चक्षु इन्द्रिय का उत्कृष्ट क्षेत्र है।

  • चक्रवर्ती द्वारा सूर्य के उदय काल में ही सूर्य विमान के ऊपर स्थित जिन मंदिरों और जिन बिम्बों के दर्शन करने का एक और कारण यह भी लगता है कि *उदय काल में सूर्य का प्रकाश सौम्य होता है जिससे सूर्य की तरफ देखने से आँखों को कोई बाधा नहीं होती और इसलिए जिन बिम्बों के दर्शन हो जाते होंगे। वही उदय के कुछ ही देर बाद सूर्य का प्रकाश इतना तेज हो जाता है कि उसकी तरफ देखने से आँखों को तकलीफ होती है फिर उसके ऊपर स्थित मंदिरों के दर्शन करना कैसे शक्य है ।

सूर्य की प्रथम वीथी (गली) एवं अंतिम १८४ वीथी (गली) में सूर्य की उदय काल के समय की स्थिति सलग्न फ़ोटो में दिखाने का प्रयास किया है उसे अवश्य देखें।

उपरोक्त प्रमाणों एवं तर्क से ये बात सिद्ध होती है की चक्रवर्ती से जुडी यह सूर्य विमान में जिन बिम्बों के दर्शन की घटना श्रावण माह में कर्क संक्रांति के दिन ही होती है। प्रति वर्ष यह कर्क संक्रांति १६ जुलाई को ही होती है इसलिए इस घटना को मकर संक्रांति से जोड़ना मिथ्या है।

मकर संक्रांति की जैन धर्म से जुड़ी कोई अन्य विशेषता ग्रंथों में उल्लेखित नहीं है इसलिए मकर संक्रांति जैन पर्व नहीं है।

विशेष अनुरोध: जैन धर्म के सर्वमान्य उपरोक्त दो सिद्धांत ग्रंथों के अनुसार तो यह बात स्पष्ट है कि भरत क्षेत्र के चक्रवर्ती सूर्य विमानों के ऊपर स्थित जिन मंदिरों के अंदर विराजमान जिन बिम्बों के दर्शन श्रावण महीने में कर्क संक्रांति के दिन ही करते हैं। फिर भी यदि किसी सदस्य को मकर संक्रांति से जुड़ी हुई घटना का कोई आगम प्रमाण मिले तो ग्रंथ का नाम, रचयिता आचार्य का नाम, पर्व संख्या, श्लोक संख्या, अध्याय संख्या, गाथा संख्या, आदि का प्रमाण भेजें।

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