मैं हूँ उस नगरी का भूप, जहाँ नहीं होती छाया धूप ||
तारामंडल की नही गति है , जहां न पहुंचें सूर |
जगमग ज्योति सदा जगती है, दिसे यह जग कूप | (1)
मैं नहीं श्याम गौर वर्णा हूँ, मैं न सुरूप कुरूप |
न ही लम्बा बोना ही मैं हूँ, मेरा अविचल रूप | (2)
अस्थि मांस मज्जा नहीं मेरे, मैं नहीं धातु रूप |
हाथ पैर शिर आदि अंग में, मेरा नहीं स्वरुप | (3)
दृश्य जगत पुद्गल की माया, मेरा चेतन रूप |
पूरन गलन स्वभाव धरे तन, मेरा अव्यय रूप | (4)
श्रद्धा नगरी वास हमारा, चिन्मय कोष अनूप |
निराबाध सुख में झूलूं मैं, सत चित आनंद रूप | (5)
शक्ति का भंडार भरा है, अमल अचल मम रूप |
मेरी शक्ति के सम्मुख नहीं, देख सके अरि भूप | (6)
मैं न किसी से दबने वाला, रोग न मेरा रूप |
‘गजेंद्र’ निज पद को पहिचाने, सो भूपों का भूप | (7)
Source:
https://youtu.be/NQJZszlal5M