Maha arghya-2 | महाअर्घ्य-2 | Puju mai shri

पूजूँ मैं श्री पंचपरम गुरु उनमें प्रथम श्री अरिहंत,
अविनाशी अविकारी सुखमय दूजे पूजूँ सिद्ध महंत।
तीजे श्री आचार्य तपस्वी सर्व साधु नायक सुखधाम,
उपाध्याय अरु सर्वसाधु प्रति करता हूँ मैं कोटि प्रणाम।
करूं अर्चना जिनवाणी की वीतराग विज्ञान स्वरूप,
कृत्रिमाकृत्रिम सभी जिनालय वन्दू अनुपम जिनका रूप।
पंचमेरु नंदीश्वर वन्दू जहाँ मनोहर हैं जिनबिम्ब,
जिसमें झलक रहा है प्रतिपल निज ज्ञायक का ही प्रतिबिम्ब।
भूत भविष्यत वर्तमान की मैं पूजूँ चौबीसी तीस,
विदेह क्षेत्र के सर्व जिनेन्द्रों के चरणों में धरता शीश।
तीर्थंकर कल्याणक वन्दू कल्याणक अरु अतिशय क्षेत्र,
कल्याणक तिथियाँ मैं चाहूँ और धार्मिक पर्व विशेष।
सोहलकारण दशलक्षण अरु रत्नत्रय वन्दू धर चांव,
दयामयी जिन धर्म अनुपम अथवा वीतरागता भाव।
परमेष्ठी का वाचक है जो ओंकार वन्दू मैं आज,
सहस्रानाम की करूं अर्चना जिनके वाच्य मात्र जिनराज।
जिसके आश्रय से ही प्रगटे सभी पूज्यपद दिव्य ललाम,
ऐसे निज ज्ञायक स्वभाव की करूं अर्चना मैं अभिराम।

(दोहा)
भक्तिमयी परिणाम का, अद्भुत अर्घ्य बनाय।
सर्व पूज्य पद पुजहूँ ज्ञायक दृष्टि लाय॥

ऊँ ह्रीं भाव पूजा, भाव वन्दना, त्रिकाल पूजा, त्रिकालवन्दना,करवी,कराववी, भावना, भाववी श्रीअरहंत,सिद्वजी,आचार्यजी,उपाध्यायजी, सर्वसाधुजी पंच परमेष्ठिभ्यो नमः।
प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चराणानुयोग, द्रव्यानुयोगेभ्यो नमः|
दर्शनविशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो नमः।
उत्तमक्षमादि दशलक्षण धर्मेभ्योः नमः।
सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यग्चारित्रेभ्यो नमः।
जल विषे, थल विषे, आकाश विषे, गुफा विषे, पहाड़ विषे, नगर-नगरी विषे उर्ध्वलोक मध्यलोक पाताल लोक विषे विराजमान कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालय स्थित जिनबिम्बेभ्यो नमः।
विदेह क्षेत्र विद्यमान बीस तीर्थंकरेभ्यो नमः।
पाँच भरत पाँच ऐरावत दसक्षेत्र सम्बन्धी तीस चौबीसी के सात सौ बीस जिनेन्द्रेभ्यो नमः।
नन्दीश्वरद्वीप स्थित बावन जिनचैत्यालयेभ्यो नमः।
पंचमेरु सम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयेभ्यो नमः।
श्री सम्मैद शिखर, कैलाश गिरी, चम्पापुरी, पावापुर, गिरनार आदि सिद्धक्षेत्रेभ्यो नमः।
जैन बद्री, मूल बद्री, राजग्रही शत्रुंजय, तारंगा, कुण्डलपुर, सोनागिरि, ऊन, बड़वानी, मुक्तागिरी, सिद्ववरकूट, नैनागिर आदि तीर्थक्षेत्रेभ्यो नमः। तीर्थंकर पंचकल्याणक तीर्थ क्षेत्रेभ्यो नमः।
श्री गौतमस्वामी, कुन्दकुन्दाचार्य श्रीचारण ऋद्धिधारीसात परमऋषिभ्यो नमः। इति उपर्युक्तभ्यः सर्वेभ्यो महा अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

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