मानत क्यों नहिं रे | Maanat kyon nahi re

मानत क्यों नहिं रे, हे नर सीख सयानी ।।टेक ।।
भयौ अचेत मोह-मद पीके, अपनी सुधि बिसरानी ।।

दुखी अनादि कुबोध अब्रततैं, फिर तिनसौं रति ठानी ।
ज्ञानसुधा निजभाव न चाख्यौं, परपरनति मति सानी ।।१ ।।

भव असारता लखै न क्यौं जहँ, नृप ह्वै कृमि विट-थानी ।
सधन निधन नृप दास स्वजन रिपु, दुखिया हरिसे प्रानी ।।२ ।।

देह एह गद-गेह नेह इस, हैं बहु विपति निशानी ।
जड़ मलीन छिनछीन करमकृत-बन्धन शिवसुखहानी ।।३ ।।

चाहज्वलन इंर्धन-विधि-वन-घन, आकुलता कुलखानी ।
ज्ञान-सुधा-सर शोषन रवि ये, विषय अमित मृतुदानी ।।४ ।।

यौं लखि भव-तन-भोग विरचि करि, निजहित सुन जिनवानी ।
तज रुषराग दौल अब अवसर, यह जिनचन्द्र बखानी ।।५ ।।

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