अब पूरी कर नींदड़ी, सुन जीया रे! चिरकाल तू सोया ॥
माया मैली रातमें, केता काल विगोया॥ अब.॥
धर्म न भूल अयान रे! विषयोंवश वाला।
सार सुधारस छोड़के, पीवै जहर पियाला॥ १ ॥ अब. ॥
मानुष भवकी पैठमैं, जग विणजी आया।
चतुर कमाई कर चले, मूढौं मूल गुमाया॥ २ ॥ अब. ॥
तिसना तज तप जिन किया, तिन बहु हित जोया ।
भोगमगन शठ जे रहे, तिन सरवस खोया॥३॥ अब. ।l
काम विथा पीड़ित जिया, भोगहि भले जानैं।
खाज खुजावत अंगमें, रोगी सुख मानैं॥४॥ अब. ॥
राग उरगनी जोरतैं, जग डसिया भाई!
सब जिय गाफिल हो रहे, मोह लहर चढ़ाई॥५ ॥ अब.॥
गुरु उपगारी गारुड़ी, दुख देख निवारैं ।
हित उपदेश सुमंत्रसों, पढ़ि जहर उतारैं ॥ ६ ॥ अब. ॥
गुरु माता गुरु ही पिता, गुरु सज्जन भाई ।
‘भूधर’ या संसार में, गुरु शरनसहाई॥७॥ अब. ll
अर्थ
हे जीव! अब तो तू इस नींद को (अज्ञान को) समाप्त कर, जिसमें चिरकाल से तू सोया ही चला आ रहा है। इन मायावी उलझनों, चिन्ता, सोच विचार की रात में तूने अपना कितना समय खो दिया! हे अज्ञानी ! विषयों को वश में करनेवाले धर्म को तू भूल मत। यह (धर्म) ही तो सारे अमृत रस का सार है, मूल है, आधार है और तू इसे छोड़कर जहर का प्याला पीता चला आ रहा है।
तूने मनुष्य भव पाया है, ऐसी साख लेकर तू इस संसार में व्यापार हेतु आया है। जो चतुर व्यक्ति हैं, वे तो अपने साथ शुद्धि अथवा शुभ कर्म की कमाई करके चले गए, परन्तु जो मूर्ख हैं, वे जो कुछ लाए थे वह भी गँवा गये। जिन्होंने तृष्णा को त्याग करके तप किया, उन्होंने अपना हित देखा और पाया। परन्तु जो अज्ञानी भोगों में ही मग्न रहे, उन्होंने अपना सर्वस्व/ सबकुछ खो दिया।
काम की पीड़ा से व्यथित यह जीव भोगों को उसी प्रकार भला जान रहा है जैसे खुजली का रोगी खुजाने में ही आनन्द की अनुभूति करता है किन्तु परिणाम में लहु-लुहान होकर दुःखी होता है।
रागरूपी नागिन ने पूरे बल से इस जगत को डस लिया है और सारे ही जीव उस विष-मोह की लहर के प्रभाव से बेसुध हो गए हैं; गुरु उपकारी हैं, वे दुःख को देखकर जहर को दूर करने के लिए उपदेश देते हैं, मंत्र-पाठ करते हैं।
गुरु ही माता है, गुरु ही पिता है, गुरु ही भाई व साथी हैं। भूधरदास जी कहते हैं कि इस संसार में गुरु ही एकमात्र शरण हैं, वे ही सहायक हैं।
भूधर भजन सौरभ