क्रम से रूपांतरण विलक्षण | Kram se Rupantaran Vilakshan

किये कर्म का फल निश्चय ही, भुगत रहा है मनुज धरा पर।
फिर कैसी अभिलाषा, चिन्ता, फली हुई है मन बिरवा पर ॥

क्रम से ही घटती है घटना, क्रम से गन्ध हवा रच देती।
क्रम रहने तक ही पड़ाव है, क्रम से सांझ सुबह हर लेती ॥

क्रम से केश श्वेत होते हैं, क्रम से होते गाल गुलाल।
क्रम से नयन रसीले होकर, संकेतों के बुनते जाल ॥

शक्ति सोच की क्रम से पहले, बीजरूप निष्क्रिय रहती।
नहीं चाह का मौन टूटता, चाह न गर क्रम में बहती ॥

मैं तुमको क्या लिखूँ, कहूँ, यह अंश नहीं सापेक्ष रूप है।
जहाँ कहीं भी फैली दिखती, वह सब क्रम की खिली धूप है ॥

सांसों का आना-जाना हो, जनम-मरण का स्वर्ग गमन हो।
अपने क्रम से आते-जाते, सुख-दुःख मण्डित भले सपन हो ॥

नव उत्पाद, ध्रौव्य, व्यय प्रतिक्षण, स्व स्वभावगत होता रहता।
क्रिया समीरण के प्रवाह में, विद्युत सा क्रम बहता रहता ॥

यही भव्यता है पदार्थ की, चल-चल कर नहिं हो निःशेष।
किसी अवस्था में नहिं तजकर, धरना पर का मनहर भेष ॥

दृश्य पात्र संवाद नाट्य के, पूर्व नियोजित होते हैं।
कोई पात्र न उद्गम होता, नहिं किंचित् क्रम खोते हैं ॥

यही धारणा रह रह करके, जब गहराती जाती है।
मनोभूमि दृष्टा की निर्मित, करती ज्ञान जगाती है ॥

भेदज्ञान से मोह कटेगा, और पराभव होगा बन्ध।
स्व-पर का श्रद्धान अकेला, छिन्न-भिन्न कर देगा द्वन्द्व ॥

केन्द्रीभूत दृष्टि जब होगी तभी भास हो पायेगा।
आस्रव से चलकर क्रम से संवर पर आ जायेगा ॥

वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि, ये हैं पुद्गल के रूप-स्वरूप।
दृष्टिगम्य जो नहिं द्रव्य मन, करे प्रवृत्त ज्ञान के रूप ॥

क्रम के द्वार विसर्जित करके वर्तमान को नत सिर मन।
खोज रहा है गत-आगत में, क्रीडा के सम्भावित क्षण ॥

नहीं कदापि हो पायेगा, सत्य और मन का अभिसार।
वर्तमान ही सर्वोपरि है, सत्य न लखता उसके पार ॥

क्रम से रूपान्तरण विलक्षण एक बार जब हो जाता।
जन्म-मरण की दुर्घटना को आत्म पुनः नहिं दुहराता ॥

-देवेन्द्रकुमार जैन, विदिशा