कल्पद्रुम यह समवशरण है, भव्य जीव का शरणागार।
जिनमुख घन से सदा बरसती, चिदानन्दमय अमृत धार ।।टेक।।
जहाँ धर्म वर्षा होती, वह समवशरण अनुपम छविमान।
कल्पवृक्ष सम भव्य जनों को, देता गुण अनंत की खान ।।
सुरपति की आज्ञा से धनपति, रचना करते हैं सुखकार।
निज की कृति ही भासित होती, अति आश्चर्यमयी मनहार ।। जिन मुख… ।।1।।
निज ज्ञायक स्वभाव में जमकर, प्रभु ने जब पाया शुक्लध्यान।
मोहभाव क्षय कर प्रगटाया, यथाख्यात चरित्र महान ।।
तब अन्तर्मुहूर्त में प्रगटा, केवलज्ञान महा सुखकार।
दर्पण में प्रतिबिम्ब तुल्य जो, लोकालोक प्रकाशनहार ।।जिन मुख… ।।2।।
गुण अनन्तमय कला प्रकाशित, चेतन चंद्र अपूर्व महान।
राग आग की दाह रहित, शीतल झरना झरता अभिराम ।।
निज वैभव में तन्मय होकर, भोगें प्रभु आनंद अपार।
ज्ञेय झलकते सभी ज्ञान में, किंतु न ज्ञेयों का आधार ।।जिन मुख… ।।3।।
दर्शन ज्ञान वीर्य सुख से है, सदा सुशोभित चेतनराज।
चौंतीस अतिशय आठ प्रातिहार्यों से, शोभित हैं जिनराज ।।
अंतर्बाह्य प्रभुत्व निरखकर, लहैं प्रभु आनंद अपार।
प्रभु के चरण कमल में वंदन, कर पाते सुख शांति अपार ।।जिन मुख… ।।4।।
~आ० अभय कुमार जी शास्त्री, देवलाली