जो जो देखी वीतराग ने, सो सो होसी वीरा रे।
अनहोनी होसी नहिं जग में, काहे होत अधीरा रे।।टेक।।
समयो एक बढ़े नहिं घटसी, जो सुख-दुःख की पीरा रे।
तू क्यों सोच करै मन मूरख, होय वज्र ज्यों हीरा रे ।।(1)।।
लगै न तीर कमान बान कहुँ, मार सकै नहिं मीरा रे।
तू सम्हारि पौरुष बल अपनो, सुख अनन्त तो तीरा रे ।।(2)।।
निश्चय ध्यान धरहु वा प्रभु को, जो टारे भव भीरा रे।
‘भैया’ चेत धरम निज अपनो, जो तारें भव तीरा रे ।।(3)।।