जो अपना नहीं उसके अपनेपन | Jo Apna Nahi Uske apnepan

जो अपना नहीं उसके अपनेपन में जीवन चला गया।
पर में अपनापन करके हा ! मैं अपने से छला गया ।।

जग में ऐसा हुआ कौन जो अपने से ही हारा।
जिसकी परिणति को अनादि से मोह शत्रु ने मारा ।
जिसने जिसको अपना माना, उसे छोड़ वह चला गया ॥ १॥

अपने को विस्मृत करके हा! जिसको अपना माना ।
क्या वह अपना हुआ कभी, यह सत्य अरे ! न जाना ॥
जो अनादि से अपना है वह विस्मृति में ही चला गया ॥ २॥

परभावों के प्रबल वेग में, निश-दिन बहता रहता ।
ज्ञानपटल पर कर्म - उदय, निज गाथा कैसे लिखता ?
प्रगटज्ञान का अंश अरे! पर-परिणति में क्यों चला गया ॥ ३॥

अपने में पर के शासन का, अन्त कहो कब होगा ?
पर में निज के अवभासन का अन्त कहो कब होगा ?
परभावों के वेदन में ही सारा जीवन चला गया ||४||

जिसने वीतराग मुद्रा लख, निज स्वरूप को जाना।
रंग-राग से भिन्न अहो, निज ज्ञान तत्त्व पहिचाना ॥
प्रगट ज्ञान का अंशतभी निज ज्ञान पुंज में चला गया ।
अपने में अपनापन करके, मैं अपने में ही चला गया ॥ ५॥

  • पं० अभयकुमार शास्त्री, देवलाली