जिस वस्तु का जिस क्षेत्र में | Jis Vastu Ka Jis Kshetra me

Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

(तर्ज: रे जीव तू अपना स्वरूप…)

जिस वस्तु का जिस क्षेत्र में, जिस काल में जो परिणमन ।
भवितव्य है वह होयगा, उसमें न हो किंचित् फिरन ।।
सब सोच तज कर आत्मन् ! चैतन्य प्रभु का कर भजन ।
आनंदमय निज आत्मा ही, जगत में निश्चय शरण ।। 1 ।।

जाने बिना शुद्धात्मा, संसार में भ्रमता फिरा ।
इक बोधि लाभ बिना अरे, बहु भाँति दुःख सहता रहा ।।
अवसर मिला पुरुषार्थ कर, होगा सहज निज अनुभवन ।
आनंदमय निज आत्मा ही, जगत में निश्चय शरण ।। 2 ।।

है कर्मबन्ध अनादि से, फिर भी अहो निर्बन्ध है।
निःकलंक है, निष्पाप है, नीराग है, निर्द्वन्द्व है।।
सहज पावन, पतित-पावन, है प्रभो! तारन-तरन ।
आनंदमय निज आत्मा ही, जगत में निश्चय शरण ।। ३ ।।

पर्याय से व्यतिरिक्त है, गुण भेद से भी भिन्न है।
अविशेष ध्रुव चिन्मात्र प्रभु पक्षातिक्रान्त अभिन्न है।।
अतीन्द्रिय अव्यक्त शाश्वत, व्यक्त नित मंगल-करन ।
आनंदमय निज आत्मा ही, जगत में निश्चय शरण ।। 4।।

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