जिनवर-आनन-भान निहारत | Jinwar Aanan Bhan Niharat

जिनवर आनन भान निहारत, भ्रमतमघान नसाया है ।।टेक।।

वचन-किरन-प्रसरनतैं भविजन, मन सरोज सरसाया है ।
भवदु:खकारन सुखविसतारन, कुपथ सुपथ दरसाया है ।।1

विनसाई कज जलसरसाई, निशिचर समर दुराया है।
तस्कर प्रबल कषाय पलाये, जिन घनबोध चुराया है।। 2

लखियत उडु न कुभाव कहूँ अब, मोह उलूक लजाया है।
हंस कोक को शोक नश्यो निज, परनतिचकवी पाया है।। 3

कर्मबंध-कजकोप बंधे चिर, भवि-अलि मुंचन पाया है।
‘दौल’ उजास निजातम अनुभव, उर जग अन्तर छाया है।। 4

रचयिता:- पं० दौलतराम जी

अर्थ:- श्री जिनेन्द्र के मुख रूपी सूर्य के दर्शन से भ्रमरूपी अंधकार के बादल विघट जाते हैं, बिखर जाते हैं अर्थात् अज्ञान दूर हो जाता है।

उनकी दिव्यध्वनिरूपी किरण के प्रसार से भव्यजनों के मनरूपी कमल खिल उठते हैं। उसे दिव्यध्वनि में कुपथ जो भव-दु:ख का कारण है और सुपथ– जो सुख का विस्तार करने वाला है, दोनों का अंतर स्पष्ट दिखाई देने लगता है अर्थात् दोनों का अंतर स्पष्ट दर्शाया/बताया है।

अज्ञानरूपी काई ज्ञानरूपी जल से नष्ट हो जाती है, वातावरण में सर्वत्र सरसाई-नमी-ठंडक आ जाती है। जैसे– रात्रि को जागरित/जाग्रत् रहने वाले उल्लू उजाला होने पर प्रतिरोध छोड़कर भाग जाते हैं वैसे ही जिनेन्द्र रूपी सूर्य के दर्शन से वे कषाय रूपी तस्कर– लुटेरे भाग जाते हैं जिन्होंने ज्ञान रूपी धन को चुराया है।

ज्ञानरूपी सूर्योदय होने पर न तारे रूपी क्षुद्र भाव दिखाई देते हैं, न खोटे भाव जाग्रत् होते हैं और मोहरूपी उल्लू लज्जित हो जाता है। सूर्य का प्रकाश होने पर जैसे चकवे का विरहरूपी शोक नष्ट हो जाता है और चकवी से उसकी भेंट हो जाती है उसी प्रकार ज्ञान का प्रकाश होते ही आत्मारूपी हंस का शोक–विरह नष्ट हो जाता है और वह अपनी स्वभाव परिणतिरूप चकवी को प्राप्त कर लेता है।

सूर्य का उजास/प्रकाश होने पर कमल पुष्प के खिल जाने से जैसे कमल- पुष्प में जकड़ा हुआ भ्रमर/भौंरा मुक्त हो जाता है उसी प्रकार जिनेंद्ररूपी सूर्य के दर्शन के उजास से भव्यात्मा कर्मबंध से मुक्त हो जाता है। दौलत राम जी कहते हैं कि आत्मानुभव के उजास में अपना व जगत् का, निज और पर का अंतर अनुभव में आता है।


आनन— चेहरा ; कज— काई ; स्मर— कामदेव ; तस्कर— चोर ; उडु— तारे ; हंस— आत्मा ; कोक — चकवा ; मुंचन— छुटकारा पाना।