जिनवाणी की अभिलाषा…
चाह नहीं मैं सद्भक्तों के सन्दूकों में शोभा पाऊँ ।
चाह नहीं मैं पूज्य हवन-मन्दिर में पूजी जाऊँ ॥ १ ॥
चाह नहीं मैं पाषाणों पर स्वर्णाक्षर बन बह जाऊँ ।
चाह नहीं मैं देवालय की प्राचीरों पर यश पाऊँ ॥ २॥
मुझे बिठा लेना हे भव्यों! अपने हृदय कपाटों पर ।
मेरी किरणों का संबल ले, विजय करो तुम मोह समर || ३ ||
पाठन-पठन अध्ययन-अध्यापन ये तो सब सीमायें हैं।
मेरी तो इक यही चाह, बस पा असीम का सुन्दर घर ||४||
पाषाणों पर टंकित होना, जड़ पत्रों पर लिख जाना ।
ढ़ह जाना इनकी नियति है, नष्ट समय आ जाने पर ||५||
मैं तो इक निश्चेत प्रेरणा, तू चेतनता का आगार ।
तेरी स्वानुभूति में गर्भित, मम जड़ जीवन का श्रृंगार ॥ ६ ॥
लख ले उस चैतन्य पुंज को पा ले पूर्ण त्रिकाली नाथ ।
मुक्तिवधु के नित्य निलय में, करना तब तुम पूर्ण निवास ॥७||
निखिल विश्व की जड़ता से है दूर जगत का वह आनन्द ।
है यही कामना, यही लालसा, शीघ्र चखो तुम परमानन्द ॥८॥
- डॉ. मनीष जैन, खतौली