जिनपद चाहै नाहीं कोय। Jinpad Chahe Nahi Koy

जिनपद चाहै नाहीं कोय ॥ टेक ॥
तीरथंकर पुन्यपरकृति, पुन्यरासी जोय ॥ जिन. ।। १ ।।
मुकति चाहै नाहिं लाहै, बिना चाहैं होय ॥ जिन. ॥ २ ॥
चाह दाह मिटाय ‘द्यानत’, आप आप समोय ॥ जिन. ॥ ३ ॥

अर्थ- जिनपद की प्राप्ति कौन नहीं करना चाहता? तीर्थंकर पद एक विशेष पुण्य प्रकृति के परिणाम से प्राप्त होता है और वह पुण्य प्रकृति अपार पुण्य होने पर ही उदय / प्रकट/प्रकाशित होती है।

मुक्ति चाहने से नहीं मिलती, मुक्ति तो समस्त चाह मिटने से होती है, मिलती है। किसी लाभ की आकांक्षा नहीं होने पर वह स्वतः ही होती है।

द्यानतराय जी कहते हैं कि चाह को दाह को मिटाकर, अपने आप में अपने आपका ही ध्यान करो, उसी में रम जावो, समा जावो।

सोर्स: द्यानत भजन सौरभ
रचयिता: पंडित श्री द्यानतराय जी