झूलें श्री वीर जिनेन्द्र पलना, त्रिशला देवी के ललना॥
कंचन मनिमय रतनजड़ित वर, रेशम डोरी के फन्द।
चित्र खचित झल्लर मुतियन की, दुति लखि लाजत चन्द॥
श्री ही आदि झुलावें प्रेम धरि, गावें मंगल छन्द।
छप्पन कुमारि घड़ी इत उत में, ढोरें चमर अनन्द।
मुलकि मुलकि पग हाथ चलावत, विहँसत मन्द सुमन्द।
निरखि निरखि छवि लखत ‘हजारी’, थकित सुरासुर वृन्द ॥
अर्थ :- श्री महावीर जिनेन्द्र पालने में झूल रहे हैं। वे माता त्रिशला देवी के लाल हैं। उनका पलना सुवर्ण, मणि और रत्नावली से जड़ित है। उसमें रेशम की डोरी का फन्दा लगा हुआ है। वह चित्र-विचित्र मुक्ताफलों की झालरों से सुशोभित है। उसमें झूलते हुए बाल जिनेन्द्र की रूप माधुरी का दर्शन कर चन्द्रमा की द्युति भी लज्जित हो रही है। उन्हें श्री और ही देवियाँ सप्रेम झुला रही हैं और मंगल छन्दों का उद्गान कर रही हैं। इधर-उधर खड़ी हुई आनन्दमग्न छप्पन कुमारियाँ चामर दुला रही हैं। बाल भगवान् मुलक-मुलक कर मन्दस्मित करते हुए हाथ-पग चला रहे हैं। मन्दहास विकीर्ण कर रहे हैं। कविवर हजारी कहते हैं कि इस छवि को देख कर सुर-असुर आदि के समस्त समूह अत्यन्त प्रसन्न हो रहे हैं।
Artist: कविवर हजारीजी