झूठी आशा कभी न करना,
और निराश कभी मत होना ।
ज्ञानवान हो रहो उद्यमी,
फल की वांछा कभी न करना ।। 1 ।
अनहोनी तो कभी न होवे,
होनहार भी समय पर होवे ।
योग्य निमित्त पुरुषार्थ भी होवे,
सहज स्वभाव की श्रद्धा रखना ।। 2 ।।
तत्त्वज्ञान का फल वैराग्य,
पर से विरत स्वयं में पाग ।
ये ही सच्चा मुक्तिमार्ग,
नहीं स्वच्छंद प्रवृत्ति करना ।। 3 ।।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान,
सम्यक् चारित्र धर्म महान ।
इससे ही होवे कल्याण,
रे! अधीरता कभी न करना ।। 4 ।।
सहजपने स्वीकार करो,
चिंता का परिहार करो।
होने योग्य सहज ही हो,
दुर्विकल्प कुछ कभी न करना ।।5।।
उक्त रचना में प्रयुक्त हुए कुछ शब्दों के अर्थ:-
१. सम्यग्दर्शन - सच्ची श्रद्धा। २. दुर्विकल्प = बुरे विचार
पुस्तक का नाम:" प्रेरणा " ( पुस्तक में कुल पाठों की संख्या =२४)
पाठ क्रमांक: १२
रचयिता: बाल ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन् ’