श्री महावीर पूजन
गणधर अशनिधर चक्रधर, हलधर गदाधर वरवदा।
अरु चापधर विद्यासुधर, तिरशूलधर सेवहिं सदा।।
दुःखहरन आनदभरन तारन, तरन चरन रसाल हैं
सुकुमाल गुण मनिमाल उन्नत, भाल की जयमाल हैं।।
गणधर, तलवार धारण करने वाले इन्द्र, चक्र को धारण करने वाले चक्रवर्ती, हल को धारण करने वाले बलदेव, गदा को धारण करने वाले नारायण, श्रेष्ठ और मधुर बोलने वाले मनुष्य, धनुष धारण करने वाले, त्रिशूल धारण करने वाले, और विद्याधर आदि सभी हमेशा, हे भगवान ! आपकी सेवा करते हैं। हे भगवान आपके चरण कमल दुःखों को हरण करने वाले, आनंद को देने वाले संसार से पार करने वाले हैं । जिनका मस्तक गुणों रुपी सुकोमल मणियों के समूह से शोमायमान
हो रहा है, ऐसे महावीर भगवान के गुणों का वर्णन करता हूँ।
जय त्रिशालानंदन, हरिकृतवदन, जगदानदन चंदवरं।
भवताप-निकंदन, तनकन-मंदन, रहित-सपंदन नयनधरं | |
आप त्रिशला माता के लाल हो। देवों द्वारा पूज्य हो। जगत को आनंदित करने वाले हो। भव के ताप को नष्ट करने के लिए श्रेष्ठ
चन्द्र के समान हो। तन की काम रूपी दाह को नष्ट करने वाले हो। हे स्पन्द रहित नयनों को धारण करने वाले महावीर भगवान् आपकी जय हो।
जय केवलभानु-कला-सदनं, भवि कोक विकाशन चंद वनं।
जगजीत महारिपु मोहहरं रजज्ञान दृगांबर चूर करम |॥१।।
केवल ज्ञान रूपी सूर्य की कलाओं के घर, भव्य जीव-रूपी कमल को विकसित करने के लिए आप सूर्य के समान हो। पुष्पों के समूह के समान आनंदित करने वाले हो। जिसने समस्त संसार को जीत लिया है ऐसे मोहरूपी महाशत्रुओं को जीतने वाले एवं ज्ञानावरणी दर्शनावरणी धूल रूपी आवरण को नष्ट करने वाले भगवान आपकी जय हो।
गर्भादिक-मंगल मंडित हो, दुःख-दारिद को नित खंडित हो।
जगरमोहिं तुम्हीं सतपंडित हो, तुम ही भवभाव-विहंडित हो।।२।।
हे भगवान आप गर्भ कल्याणक आदि पंच कल्याणकों से सहित हो । दुःख और दरिद्रता को नष्ट करने वाले हो, संसार में आप ही उद्धार करने वाले हो; ज्ञाता हो, और आप ही संसार बढ़ाने वाले भावों को नष्ट करने वाले हो।
हरिवंश-सरोजन को रवि हो, बलवंत महंत तुम्हीं कवि हो।
लहि केवलधर्म प्रकाश कियो, अबलों सोई मारग राजति हो ।॥३॥।।
इन्द्रों के समूह रूपी कमल को विकसित करने के लिए आप सूर्य के समान हो, अनंत वीर्य को धारण करने वाले महाबलवान हो | महान उत्कृष्ट कवि हो। हे भगवान आपने केवलज्ञान प्राप्त कर धर्म को प्रकाशित किया। वही धर्म आज तक शोभायमान हो रहा है |
पुनि आप तने गुणमाहिं सही, सुर मग्न रहें जितने शाह ही
तिनकी वनिता गुनगावत हैं, लय- माननिसों मनभावत हैं।।४।।
हे भगवान ! सुरगन आपके गुणों के चिन्तन और स्मरण करते हुए मग्न हो जाते हैं और उन सुरों की देवांगनाए मन का हरण करने वाली अत्यन्त सुन्दर लय से आपके गुण गाती हैं।
पुनि नाचत रंग उमंग भरी, तुअ भक्ति विषै पग एम धरी।
झनन झनन झननं झननं, सुर लेत तहां तननं तननं।। ५।।
भक्ति के रंग में रंग कर उमंग से नृत्य करती है और तरह-तरह से पाँव को उठाती और रखती है। उनके पाँव रखने और उठाने से उनके पाँव की पायल एवं नूपुरों से झनन झनन की आवाज होती है और देव अपने वाद्य यंत्रों स़े तनन तनन की तान खींचते हैं।
घनन घनन॑ घनघंट बजे, दृमदं दूमदं॑ मिरदंग सजै।
गगनागन गर्भगता सुगत्रा, ततता ततता अतता वितता।॥६।।
घनन घनन घंटों की आवाज हो रही है और द्रम द्रम मृदंग की ध्वनि हो रही है | गगन रूपी आंगन में, गर्भ ग्रह में, शब्दों की गूँज की तरह ततत और अतत ओर बित्॒त की भी सुन्दर ध्वनि हो रही है।
धृगतां क्षणगतां गति बाजत है, सुरताल रसाल जु छाजत है।
सनन॑ सनन॑ सनन॑ नभ में, इकरूप अनेक जु धारि भ्रमें।।७।।
तब्लो से द्रगता द्रगता की ध्वानि हो रही है और सारंगी की मधुर आवाज हो रही है। आकाश में देवों के नाना रूप धारण कर भ्रमण करने से सनन सनन की आवाज हो रही है।
कई नारी-सु बीन बजावत हैं, तुमरो जस उज्ज्वल गावत हैं।
करताल विष करताल धरे, सुरताल विशाल जु नाद करें।।८।।
कई स्त्रियां बीन बजाकर हे भगवान आपके निर्मल गुणों का गान कर रही है। वे देवियां अपने हाथों में करताल लिए है और कई गम्भीर स्वर में सुरताल (सारगी) बजा रही हैं।
इन आदि अनेक उछाह सा सुर भक्ति करें प्रभुजी तुमरी।
तुमही जगजीवन के पितु हो, तुमही बिनकारन कें हितु हो।।६।।
इस तरह अनेक प्रकार से उत्साह पूर्वक देवगण आपकी भक्ति करते हैं | आप संसार के सभी जीवों के पिता सदृश हो, आप
ही बिना कारण के हमारा हित करने वाले मित्र हो।
तुमही सब विघ्न विनाशन हो, तुमही निज आनंदभासन हो।
तुमही चित चिंतित दायक हो, जगर्मोहि तुम्हीं सबलायक हो।|१०॥।
आप ही सब विध्नों को नष्ट करने वाले हो। आप ही आत्मा के आनंद को बताने वाले हो। आप ही सभी चिन्तित फल को देने वाले हो आप ही सभी श्रेष्ठ कार्य करने में समर्थ हो।
तुमरे पन मंगल मॉहि सही, जिय उत्तम पुन्य लियो सबही।
हम तो तुमरी शरणागत हैं, तुमरे गुन में मन पागत है।।११।।
हे भगवान आपके पाँचों कल्याणक महोत्सवों को आनंद सहित मनाकर जीव उत्कृष्ट पुण्य अर्जन करते हैं | हमारे लिए तो एक आप ही शरण हैं | आपके ही गुणों में मन को अनुराग होता है |
प्रभु मो हिय आप सदा बसिये, जबलों वसु कर्म नहीं नसिये।
तबलो तुम ध्यान हिये वरतों, तबलो श्रुत चिंतन चित्त रतों।।१२।।
हे भगवान ! जब तक मेरे आठों कर्म नष्ट नहीं होते हैं तब तक आप मेरे हृदय में ही निवास कीजिए | हे भगवान ! जब तक आठ कर्म नष्ट नहीं हो रहे तब तक मुझे आपका ही ध्यान बना रहे, जिससे श्रुत चिन्तन में मन लगा रहे।
तबलो व्रत चारित चाहुत हों, तबलों शुभभाव सुगाहतु हों।
तबलों सतसंगति नित्त रहो, तबलों मम संजम चित्त गहो।।१३|।
जबलो नहिं नाश करों अरि को, शिव नारि वरों समता धरि को।
यह द्यो तबलों हमको जिनजी, हम जाचतु हैं इतनी सुनजी | ।१४॥।।
तब तक मेरे अन्दर संयम का भाव रहे, तब तक मेरे हृदय में सत्संगति का भाव रहे, तब तक व्रत चारित्र रहे, तब तक मेरे शुभ भाव रहें, जब तक आठ कर्म रूपी शत्रु का नाश नहीं होता और जब तक मन में समता भाव धारणकरके शिवनारी का वरण नहीं करता | हे भगवान ये सब चीजें हमें दीजिए हम ऐसी विनय पूर्वक याचना करते है |
श्रीवीर जिनेशा नमित सुरेशा, नागनरेशा भगति भरा।
’वृन्दावन’ ध्यावे विघन नशावैं, वॉछित पावैं शर्म वरा।।
हे महावीर भगवान ! भक्ति से भरकर इन्द्र नागेन्द्र चक्रवर्ती आपको नमस्कार करते हैं। वृन्दावन लाल जी कविराज कहते हैं कि जो भव्य श्री महावीर भगवान का ध्यान करते हैं उनके सभी विध्न नष्ट हो जाते हैं और उन्हें इच्छित उत्कृष्ट मोक्ष सुख प्राप्त होता है।
दोहा
श्री सन्मति के जुगल पद, जो पूजे धरि प्रीत।
’वृन्दावन” सो चतुर नर, लहै मुक्ति नवनीत।।
श्री सन्मति भगवान के चरण युगल की जो प्रीति पूर्वक पूजन करता है, वृन्दावन लाल कबि कहते हैं कि वह ही चतुर मनुष्य है क्योंकि वह ही मोक्ष रूपी नवनीत को प्राप्त करता है।