जगत में सो देवन को देव
जासु चरन परसै इन्द्रादिक, होय मुकति स्वयमेव || टेक ||
जो न छुधित, न तृषित, न भयाकुल, इंद्री विषय न बेव |
जनम न होय, जरा नहिं व्यापै, मिटी मरन की टेव || १ ||
जाकै नहिं विषाद, नहिं बिस्मय, नहिं आठों अहमेव |
राग विरोध मोह नहिं जाके, नहिं निद्रा परसेव || २ ||
नहिं तन रोग, न श्रम, नहिं चिंता, दोष अठारह भेव |
मिटे सहज जाके ता प्रभु की, करत ‘बनारसि’ सेव || ३ ||
Artist - पं. श्री बनारसीदासजी