जगत जन जूवा हारि चले | Jagat jan juva haari chaale

जगत जन जूवा हारि चले |
काम कुटिल संग बाजी मांड़ी, उन करि कपट छले || टेक ||

चार कषायमयी जहं चौपरि, पांसे जोग रले |
इत सरवस उत कामिनी कौड़ी, इह विधि झटक चले || १ ||

कूर खिलार विचार न कीन्हों, ह्वै है ख्वार भले |
बिना विवेक मनोरथ काके, ‘भूधर’ सफल फले || २ ||

Artist : कविवर पं. भूधरदास जी

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जगत के लोग जूवा हारकर चले गये। काम (कामनाओं) व कुटिलता के साथ बाजी खेली, उनके द्वारा छले गये और बाजी हार गये।

चौपड़ की चार पट्टिया चार कषाय के समान हैं, पासे योग के समान हैं। एक ओर तो सर्वस्व है दूसरी ओर कामिनीरूपी कौड़ी है, उस कोड़ी से झटके गये अर्थात् छले गये।

ये झूठे खेल खेलते समय तो विचार नहीं करते अपनी बरबादी कर लेते हैं और फिर दुःखी होते हैं। भूधरदास जी कहते हैं कि विना विवेक किये गये कार्य से किसका मनोरथ सफल हुआ है? अर्थात् किसी का नहीं हुआ।

योग - मन-वचन और काय की प्रवृति। यह प्रवृत्ति बदलती रहती है जैसे चौपड़ के पासे लुढकते बदलते रहते हैं।

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