जान के सुज्ञानी जैनवानी की सरधा लाइये । Jaan ke sugyani jainvani ki sardha laiye

जान के सुज्ञानी जैनवानी की सरधा लाइये ।। टेक।।

जा बिन काल अनन्ते भ्रमता, सुख न मिलै कहूँ प्रानी ।
स्व पर विवेक अखण्ड मिलत है, जाही के सरधानी ।।१।।

अखिल प्रमान सिद्ध अविरुद्धत, स्यात्पद शुद्ध निशानी ।
‘भागचन्द’ सत्यारथ जानी, परम धरम रजधानी || २ ||

रचयिता: कविवर श्री भागचंद जी जैन
Source: अध्यात्म भजन गंगा