(तर्ज : दर्शन नहिं ज्ञान न चारित…)
हो श्री जिनवर की पूजा, हम सबको मंगलकारी।
सब धर्म अहिंसा धारें, पावें शिवपद अविकारी ।।टेक।।
देखो जिनवर को देखो, प्रभुता कैसे प्रगटाई ?
हैं अन्य न कोई साधन, निश्चय निज में से आई ।।
निज अन्तस्तत्व निहारो, नारों पर भाव विकारी ।।1।।
झूठी बाहर की प्रभुता, मत पर में चित्त भ्रमाओ।
मंगलमय अवसर आया, प्रभुवर की भक्ति रचाओ।।
संकट सब ही टल जावें, हो उत्सव आनन्दकारी ।।2।।
जिनवर के गुणगाने में, गणधर इन्द्रादिक हारे।
केवल बहुमान जतावें, हैं हम तो मंद विचारे ।।
परिणाम विशुद्धि सु होवे, गुण चिन्तत नित सुखकारी ।।3।।
जिननाथ शरण में आया, चरणों में शीश नवाऊँ।
बाहर प्रभु कुछ न सुहावे, निर्ग्रन्थ भावना भाऊँ।।
पाऊँ मैं बोधि समाधि, भव भ्रमण नशावन हारी।4।।
Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’