है अगम्य अनमोल अनंती, सुखदाई जिनवाणी ॥टेक॥
मातृ अनुग्रह तनुज भविक के, प्रति तो बहुत दिखाती।
यावत तावत नेक विधि युत, पथ अपवर्ग दिलाती।
सीख स्वयं की शास्त्र बताए, शिवसुख सहज प्रदाई ।।1।।
जग में जननी अभिज्ञान, तव मोह भाव से होता।
तुम जग जननी वीतरागता, से दिग्दर्शन होता॥
मिथ्यामल हर सद्दृष्टि से जाना मैं निज आतम ।।2।।
भव कांतार विषें परितः ही, आकुलता थी होती।
चित्स्वरूप से विमुख निरंतर, प्रीत सु पर में जोड़ी॥
जिनवाणी ने कहा तभी लख, तू जिनवर का शासन ।।3।।
कतिपय अंश सुखाभासों में, था सर्वस्व लुटाया।
पर वैभव प्रति अहम भाव से, हाहाकार मचाया॥
निज वैभव दे दिया हे माता, नायक निज शुद्धातम ।।4।।