ज्ञानामृत सिन्धु रे | Gyanamrut sindhu re

ज्ञानामृत सिन्धु रे! अन्तर में उछलाय।
परमामृत का सिन्धु रे! अन्तर में उछलाय॥ टेक॥

जन्म न होवे, जरा न हो, नहीं मरण दिखाय।
आधि न कोई, व्याधि न कोई, नाहिं उपाधि आय॥1॥
नहीं रोग हो, नहीं शोक हो, हो नहीं पाप कषाय।
सहज सिद्ध परिपूर्ण स्वयं में, नहीं विकल्प उपजाय॥ 2॥
नहीं उपद्रव, नहीं क्लेश हो, नहीं कोई शरण सहाय।
सहज शुद्ध चिन्मूरति आतम, आनन्दमय विलसाय॥ 3॥
विभ्रम चादर दूर हुई है, घट अन्तर न समाय।
रहूँ निमगन सहज अन्तर में, सुख सागर उछलाय॥ 4॥
रहूँ तृप्त संतुष्ट सदा ही, बाहर कुछ न सुहाय।
मंगलमय अकृत्रिम तीरथ, शुद्ध जीवास्तिकाय॥ 5॥
अहो! सहज नि्द्न्द्द निशगाकुल, नहीं उपयोग भ्रमाय।
किसको पूजूँ किसको ध्याऊँ, नाहिं द्वैत दिखाय॥ 6॥
सहज गुरु की अनुभूति में, अद्भुत प्रभुता पाय।
नहिं विकल्प हो मुक्ति का भी, सहज मुक्ति पद धाय॥ 7॥

Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
Source: स्वरूप-स्मरण