ज्ञान ही सुख है, राग ही दुःख है | Gyan hi sukh hai, Raag hi dukh hai

ज्ञान ही सुख है, राग ही दुःख है

(छंद – झूलना, तर्ज : चार मंगल शरण श्रेष्ठ है लोक में)

ज्ञान ही सुख है, राग ही दुःख है |

ज्ञान करते रहो, राग तजते रहो || टेक ||

लोक सम्बन्धी, सब राग अति दुःखमय,

और व्यवहार तल्लीनता क्लेशमय |

द्रव्य जिसका अलग, क्षेत्र जिसका पृथक,

काल भाव जुदा, उससे हटते रहो || 1 ||

हैं सभी द्रव्य वस्तुत्व द्रव्यत्वमय,

परिणमन वे स्वयं प्रति समय कर रहे |

है किसी को जरुरत तुम्हारी नहीं,

तुम जरुरत सभी की विसरते रहो || 2 ||

अपनी चिन्ता से पर को भी सुख-दुःख नहीं,

निज को दुःखमय करमबन्ध होता सही |

इसीलिए व्यर्थ चिंता जगत की तजो,

आत्म कल्याण दृष्टी में धरते रहो || 3 ||

आशा त्यागो कोई सुख देगा तुम्हें,

लेने देने में प्रभु भी तो असमर्थ है |

आश प्रभु की तजो, लक्ष्य प्रभु सम धरो,

निज में आनंद रसपान करते रहो || 4 ||

Source : “जिन भक्ति सिन्धु”
Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

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