ज्ञानी ! थारी रीति रौ अचंभौ मोनैं आवै |
भूलि सकति निज-परवश ह्वै क्यौं, जनम-जनम दुख पावै || टेक ||
क्रोध लोभ मद माया करि करि, आपौ आप फँसावे |
फल भोगन की बेर होय तब, भोगत क्यौं पिछतावै || १ ||
पाप काज करि धन कौं चाहे, धर्म विषै में बतावै |
‘बुधजन’ नीति अनीति बनाई, साँचौ सौ बतरावै || २ ||
Artist : कविवर पं. बुधजन जी