सुर-नर-तिरयग योनि में, नरक-निगोद भ्रमंत |
महामोह की नींद सों, सोये काल अनंत || १ ||
जैसें ज्वर के जोर सों, भोजन की रूचि जाय |
तैसें कुकर्म के उदय, धर्म-वचन न सुहाय || २ ||
लगै भूख ज्वर के गए, रूचि सों लेय आहार |
अशुभ गये शुभ के जगे, जानै धर्म-विचार || ३ ||
जैसें पवन झकोर तैं, जल में उठै तरंग |
त्यों मनसा चंचल भई, परिग्रह के परसंग || ४ ||
जहाँ पवन नहिं संचरै, तहाँ न जल-कल्लोल |
त्यों सब परिग्रह त्यागतैं, मनसा होय अडोल || ५ ||
ज्यों काहू विषधर डसै, रूचिसों नीम चबाय |
त्यों तुम ममतासों मढ़े, मगन विषय-सुख पाय || ६ ||
नीम रसन परसै नहीं, निर्विष तन जब होय |
मोह घटे ममता मिटे, विषय न वांछै कोय || ७ ||
ज्यों सछिद्र नौका चढ़े, बूड़हि अंध अदेख |
त्यों तुम भव जल में परे, बिन विवेक धर भेख || ८ ||
जहाँ अखंडित गुन लगे, खेवट शुद्ध-विचार |
आतम-रूचि-नौका चढ़े, पावहु भवजल पार || ९ ||
ज्यों अंकुश मानैं नहीं, महामत्त गजराज |
त्यों मन तिसना में फिरैं, गिनै न काज अकाज || १० ||
ज्यों नर दाव उपाय कैं, गहि आनैं गज साधि |
त्यों या मन बस करन कों, निर्मल ध्यान समाधि || ११ ||
तिमिर-रोगसों नैंन ज्यों, लखै और को और |
त्यों तुम संशय में परे, मिथ्यामति की दौर || १२ ||
ज्यों औषध अंजन किये, तिमिर-रोग मिट जाय |
त्यों सतगुरु उपदेशतैं, संशय वेग विलाय || १३ ||
जैसें सब यादव जरे, द्वारावति की आगि |
त्यों माया तुम परे, कहाँ जाहुगे भागि || १४ ||
दीपायन सों ते बचे, जे तपसी निर्ग्रन्थ |
तजि माया समता गहो, यहै मुकति को पंथ || १५ ||
ज्यों कुधातु के फेंट सों, घट-बढ़ कंचन कान्ति |
पाप-पुन्य कर त्यों भये, मूढ़ातम बहु भाँति || १६ ||
कंचन निज गुन नहिं तजै, हीन बान के होत |
घट-घट अंतर आत्मा, सहज-सुभाव उदोत || १७ ||
पन्ना पीट पकाइये, शुद्ध कनक ज्यों होय |
त्यों प्रगटै परमात्मा, पुण्य-पाप-मल खोय || १८ ||
पर्व राहु के ग्रहण सों, सूर-सोम छवि-छीन |
संगति पाय कुसाधु की, सज्जन होय मलीन || १९ ||
निम्बादिक चन्दन करै, मलयाचल की बास |
दुर्जनतैं सज्जन भये, रहत साधु के पास || २० ||
जैसें ताल सदा भरैं, जल आवै चहुँ ओर |
तैसें आस्रव-द्वारसों, कर्म-बंध को जोर || २१ ||
ज्यों जल आवत मूंदिये, सूखै सरवर-पानि |
तैसें संवर के किये, कर्म-निर्जरा जानि || २२ ||
ज्यों बूटी संयोग तैं, पारा मूर्छित होय |
त्यों पुद्गलसों तुम मिले, आतम शक्ति समोय || २३ ||
मेलि खटाई माँजिये, पारा परगट रूप |
शुक्लध्यान अभ्यास तैं, दर्शन-ज्ञान अनूप || २४ ||
कहि उपदेश ’ बनारसी ', चेतन अब कछु चेत |
आप बुझावत आपको, उदय करन के हेत || २५ ||
Artist : कविवर पं. बनारसीदास जी