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आप सहि कह रहे हो।
इसी लिए तो हमे आगम का यथार्थ अभ्यास करके सही को पहचाना है।अगर कोई गलत बताये तो आगम के आधार से संहि बताना परंतु न माने उनसे द्वेष न करके मौन रहना ही ठीक है।

रागी देवी देवता को मानना उसके पीछे मात्र हमारी इच्छा को पुष्ट करने का ही अभिप्राय होता है।
परंतु जिनागम तो इच्छा से रहित निर्विकल्पता में ही आनंद मानता है।यह विश्व मे सबसे उत्कृष्ट बात एक मात्र जिनागम में है।

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exactly…well said…

पर यह बात कुगुरु द्वारा पाठ पढाये शिस्य को समझ नहीं आती जैसे मोह में अंध पुरुष को विषय भोगो के सिवा और कुछ समझ नहीं आता; इससे यह समझना चाहिए की सद्धबुद्धि होना और राग का मंद होना कितना दुर्लभ है; वास्तव में सब कार्यो को छोड़कर सम्यक्त्व की आराधना करनी चाहिए ; धिक्कार है इन भोगो को जिनमे फसकर यह जीव ऐसा सुअवसर खोता है; कितनी मुश्किल से; जाने कितने भवों बाद हमे पूज्य गुरुदेव जैसे गुरु मिले

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बिल्कुल सही कहा आपने। टोडरमल जी ने मोक्षमार्गप्रकाशक के 8वे अधिकार में यही लिखा है। मेरा इसमें एक प्रश्न है -
किसी मुनिराज के सम्पूर्ण 28 मूलगुणों का पालन हो रहा है या नहीं ― ये बात उनको पहली या दूसरी बार देखके तो पता चलेगी नहीं। यदि हमारे सामने कोई मुनि ईर्या समिति से गमन करते हुए आते हैं तो उनको नमस्कार करना या नहीं?

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सिद्धान्तों में दृढ़ता , व्यवहार में नम्रता

~ इस तथ्य को जितना जल्दी अपने जीवन मे उतारेंगे, उतना जल्दी हर सामाजिक विवाद से छूटेंगे । और अपने परिणामों की विशुद्धि के मार्ग को उतना ही ज्यादा प्रशस्त करेंगें…।

जी बिल्कुल, आज के समय मे यही तर्क देकर समाज वास्तविक धर्म से विमुख हो रहा है ,

पूज्य तो एकमात्र रत्नत्रय है , ना ही व्यक्ति और ना ही उसकी क्रिया । परन्तु फिर भी सोचने वाली बात हैं/-

  1. सर्वप्रथम यह कहना बनता ही नही कि वर्तमान में सच्चे साधु नही ,इसे तो अपने दिमाग से निकाल देना ही चाहिए । क्योंकि टोडरमलजी ने भी इसके संदर्भ में मोक्षमार्ग प्रकाशक में स्पष्ट किया है , कि इस क्षेत्र में नही तो अन्य क्षेत्र में होंगें… इत्यादि
    ( I just say this to make a platform )

  2. ईर्या समिति आदि 28 मूलगुण व्यवहार है , और नमस्कार करना भी व्यवहार है , दोनों ही शरीराश्रित क्रिया है , अतः नमस्कार करने में कोई बाधा नही है । इससे हमारा मोक्षमार्ग रुक जाएगा , ऐसा भी नही है ।

  3. 28 मूलगुण की बात भी यदि लेकर चलें , तो आगम में जिन्हें भावलिंगी संज्ञा भी दे दी गयी , ऐसे पुलाक , वकुश…( तत्त्वार्थसूत्र जी ) इत्यादि मुनिराज भी दोषसहित देखने मे आ सकते हैं , वहाँबाधा आ सकती है ।

  4. यहाँ रत्नकरण्ड श्रावकाचार की बात भी ध्यान में लाई जा सकती है कि सम्यक्त्वहीन पूज्य नही , तो वहाँ अलग विवेचना है , वो उन मुनि को पूजने का , वास्तविक गुरु मानने का निषेध है , नमस्कार आदि में बाधा अब भी नही आती ।

5.जब-जब किसी के सम्यक्त्व के परीक्षण की चर्चा आती है , तो मुझे समयसार के वे कलश ख्याल आतें हैं , जहाँ आचार्यदेव ज्ञान - वैराग्य शक्ति की चर्चा करते हैं , भले ही ये बात पूर्णरूपेण सही ना हो , तथापि सम्यक्त्वी के सम्यक्त्व का आधार ज्ञान और वैराग्य भी है , तो यदि 28 मूलगुणों के साथ आपको दोष दिखाई पड़े और ज्ञान-वैराग्य में निर्मलता तो नमस्कार करना चाहिए ।

  1. एक बात यह भी है , कि क्या पता वे साधु जिनको हमने प्रथम गुणस्थानवर्ती समझ लिया , वे भावलिंगी हों …! , जब हमने देखा , उस समय किसी कारणवश अतिचार लग गया हो , और हमने उन्हें गलत समझ लिया हो , तो इसका ऐसे कोई हल नही निकलेगा ।…

~ विचार की आवश्यकता है…!!

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जी सत्य है, परंतु हम इसी क्षेत्र की बात कर रहे है।
क्योंकि वंदन करते समय लोक के समस्त भावलिंगी मुनिराज को वंदन करते है

निश्चय पूर्वक व्यवहार ही व्यवहार है
अज्ञानी का व्यवहार पूज्य नहि है
और भूमिका अनुसार व्यवहार होता है

मुनि मानकर अगर नमस्कार करे तो योग्य व्यवहार नहि हुआ

अतिचार लगने से जब मुनिपना छूट जाए तब भी वे द्रव्यालिंगी ही है
अतः द्रव्यालिंगी को ही नमस्कार आदि होगा
फिर से लीनता बढ़ने पर वे भावलिंगी होंगे

यहाँ तो बाह्य व्यवहार की बात ही चल रही है
निश्चय से तो सभी जीव को सिद्ध समान मानकर वंदन करने में कोई आपत्ति नहि है
भूमिका अनुसार बाह्य व्यवहार ही यथयोग्या पूजनीय है

मेरे कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि नमस्कार करना व्यवहार है और 28 मूलगुण भी व्यवहार , अतः प्रथम में नमस्कार करने में आपत्ति नही है

मैं बात ज्ञानी - अज्ञानी की नही करना चाहता । मुनिपद के व्यवहार की करना चाहता हूँ।
तथा प्रथम पंक्ति के भाव को समझने का प्रयास करें ।
:arrow_down:

नमस्कार तो मुनि को ही करेंगे,उनके अलावा सम्यकदृष्टि, या अणुव्रती को नमस्कार करना यह तो पांच परमेष्ठी का अपमान करना है।
रही बात भावलिंगी और द्रव्यलिंगी कि उनका गुणस्थान शरीर की क्रिया हम नही पहचान सकते,
जैसे कोई ध्यानस्त मुनिराज कठोर उपसर्ग की अवस्था मे अडिग रहे,वे मिथ्यात्व में भी हो सकते है और कोई आचार्य अपने शिष्य को कठोर दंड दे तो भी वे 6 थवे गुणस्थान वर्ती हो सकते है।

28 मूलगुण का अखंड रूप से पालन हो रहा हो तो नमस्कार करना ही चाहिए।

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मुनिपना छूटना अर्थात द्रव्यलिंग छूटना है,और अतिचार लगने से मुनिपना छूट नही जाता है।

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यह सब सामान्य स्थूल कथन है ,सूक्ष्म और स्पष्ट कथन करणानुयोग से पता चलेगा जिसको दर्शन मोह और अनन्तानुबन्धी का उपशम क्षय या क्षयोपशम हुआ है उनको ही सम्यक्त्वी कहेंगे
अभी हम यह कार्मण वर्गणा को जान नही सकते इसी लिए अगर किसीको सम्यक्त्वी कहेंगे तो चरणानुयोग या द्रव्यानुयोग की अपेक्षा से उपचार से कहेंगे।

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मुनिराज को देखकर ही पता चल जाएगा
यदि उनके हाथ पैर,शरीर स्वच्छ है ,तो उन्होंने अस्नान का पालन नही किया
इसी लिए मुनि राज के नाम मे मल लगा दिया जाता था
पद्मप्रभमाल धारी
2) मुनिराज ने कमंडल या पिंछि किसी को पकड़ाया है तो नही चलेगा क्योंकि अन्य जीव ईर्या समिति का पालन नही करेगा तो उनको दोष लगेगा
इस तरह हम कुछ अंदाजा ले सकते है

मुजे सबसे पहले यही प्रश्न होता है कि आज के काल मे उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा का पालन कैसे संभव है?

अगर मुनि घर के अंदर रह रहें हो तो क्या २८ मूल गुण का पालन होगा? अगर नहीं, तो कौनसे गुण का पालन नहीं होगा?

कहने का आशय यह है की अगर वह किसी कमरे में रह रहे हो (चाहे उसमें पंखा बिजली आदि न हो) - क्या इसकी अनुमति है?

मुनि चश्मा लगा सकते है क्या?

कई मुनियों के साथ पुलिस चलती है सुरक्षा के लिए? पुलिस के साथ बन्दूक रहती है.

यह सब की अनुमति है या इनसे मूल गुण का पालन नहीं होता है? मेरी यह शंकाएं है.

उनके निमित से यह तैयार किया गया हो पंचमहावृत का पालन नही होगा,अगर कमरे में साफ सफाई भी की हो तो भी नही चलेगा चातरुरमास के अलावा 3 दिन से ज्यादा वहां नही राह सकते।

रही बात बिजली की आज कल हम देखते है पांडाल बनना,बेनर छपवाना,पंडाल में पंखा लाइट आदि का इस्तेमाल करना यह सब मे पंच महाव्रत का पालन कैसे होगा,

अगर आंखे कमजोर हो जाये तो दीक्षा छेद कर प्रतिमाधारी बनना चाहिए, क्योंकि फिर पैर कमजोर हो जाये तो wheel chair का इस्तेमाल करना पड़ेगा, ऐसी अवस्था मे प्रतिमाधारी बनना ही सही है।परिग्रह का एक कण भी बहोत दोष का पात्र बनेगा,

यह बिल्कुल आगम आगम विरुद्ध है।
आप विचार करना।

मूलगुण का पालन नही है तो बिल्कुल नही चलेगा

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Just confused on reading this: (Punyasarva Kathakosh Pg -80) श्रेणिक जी कथा -

दो देव श्रेणिक के सम्यक्त्व की परीक्षा लेने आये - एक ने मुनि का वेश बनाया, एक ने गर्भवती आर्यका का, जिस मार्ग से श्रेणिक निकलने वाले थे वही मार्ग में स्थित एक नदी पे जाल फैलाकर-

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I doubt the authenticity of the incident described here. Because its impossible that gurudevshree would have asked such question. The narration itself shows that the author didnt have any respect towards Kanji swami. So its quite evident the incident has been wrongly narrated.