इतने नरम मत बनो कि लोग तुम्हें खा जाये।
इतने कठोर भी मत बनो कि लोग तुम्हें छू न सकें।
इतने गंभीर भी मत बनो कि लोग तुमसे ऊब जायें।
इतने छिछले भी मत बनो कि लोग तुम्हें मानें ही नहीं।
इतने जटिल भी मत बनो कि लोगों में मिल भी न सको।
इतने मंहगे भी मत बनो कि लोग तुम्हें बुला न सकें।
इतने सस्ते भी मत बनो कि लोग तुम्हें नचाते रहें।
-श्रीमति रुचि ‘अनेकांत’ जैन महरौली, दिल्ली