श्री धर्मनाथ जिनपूजन
(गीतिका)
हे प्रभो! शिवमार्ग पाया, भविजनों ने आप से।
आपका दर्शन हुआ, प्रभुवर परम सौभाग्य से ।।
भक्ति से पूरित हृदय, गुणगान को उद्यत हुआ।
बहुमान से पूजा करूँ, निजनाथ के सन्मुख हुआ ।।
(दोहा)
पूजूँ धर्म जिनेश को, भाव विशुद्धि धार
प्रभु सम प्रभु अन्तर निरख, भक्ति करूँ अविकार ।।
ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्
ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
(वीरछन्द)
सहज शुद्ध आतम नहिं जाना, मोह मलिनता नहिं जानी।
बाह्य मलिनता जल से धोई, धर्म रीति नहिं पहिचानी ॥
मोह मलिनता को हरने अब, शुद्ध आत्मा को ध्याऊँ ।
धर्मनाथ प्रभु की पूजा कर, परमधर्म निज में पाऊँ ।।
ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
चन्दनादि से शीतलता की, आशा में भरमाया था ।
प्रभु गुण चिन्तन रूपी चंदन, नहीं क्रोधवश पाया था ।।
अब भवाताप विनशाने को, भव रहित आत्मा को ध्याऊँ ॥ धर्मनाथ…॥
ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
अक्षयपद नहिं पहिचाना, अक्षय वैभव नहिं पाया था ।
अपद्भूत इन्द्रादि पदों में, सुख समझा ललचाया था ।
अक्षय अविकारी सुख पाने, ध्रुव रूप आत्मा को ध्याऊँ।। धर्मनाथ…॥
ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ।
निष्काम निजानन्द नहिं जाना, भोगों में चित्त लुभाया था।
अनुकूल भोग सामग्री पा इतराया शील नशाया था ।।
अब परम शील सुख पाने को, चिद्रूप आत्मा को ध्याऊँ ।।
धर्मनाथ प्रभु की पूजा कर, परमधर्म निज में पाऊँ ।।
ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
ज्ञायक स्वभाव की दृष्टि बिना, स्वाभाविक तृप्ति न पाई थी।
रे! क्षुधा रोग से पीड़ित हो, जो वस्तु मिली सब खाई थी ।
अविनाशी आनन्द पाने को, परिपूर्ण आत्मा को ध्याऊँ ॥ धर्मनाथ ।।
ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
मोहान्धकार में भटकाया, भव भव में स्वामिन् दुखी हुआ । निजनिधि अवलोकन कर न सका, भव भव में जन्मा और मुआ ।।
अब सम्यग्ज्ञान प्रकाश मिला, चैतन्य आत्मा को ध्याऊँ ।
धर्मनाथ. ।।
ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
अग्नि में खेय दशांग धूप, जग में जो धुआँ उड़ाते हैं ।
नहिं इससे कर्म नष्ट होते, बहुते प्राणी मर जाते हैं ।।
अब कर्म नशाऊँ ध्यानानल में, ध्येय आत्मा को ध्याऊँ । धर्मनाथ. ।।
ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
प्रभु पुण्य-पाप के फल पाकर, रति- अरति करें प्राणी जग के ।
पर पुण्य-पाप को सहज त्याग, ज्ञानी साधक हों शिवमग के ॥ अविनाशी शिवफल पाने को, निर्मुक्त आत्मा को ध्याऊँ ॥ धर्मनाथ. ।।
ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
बहुबार चढ़ाया द्रव्य अर्घ्य, पर प्रभु स्वरूप से रहा विमुख।
कुछ नहीं मूल्य है द्रव्य अर्घ्य का, निज अनर्घ्यपद के सन्मुख ॥
अविचल अनर्घ्यपद पाने को, अब अनुपम शुद्धातम ध्याऊँ ॥ धर्मनाथ ॥
ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
पंचकल्याणक अर्घ्य
(रोला)
गर्भागम जिनराज आपका मंगलकारी,
पन्द्रह माह रत्नवर्षा होवे सुखकारी ।
अष्टम सित वैशाख गर्भ कल्याण मनाया,
पूजत तुम्हें जिनेश महा आनन्द उपजाया ।।
ॐ ह्रीं वैशाख शुक्लाष्टम्यां गर्भमंगलमण्डिताय श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा
माघ शुक्ल तेरस के दिन जन्मे अविकारी,
मेरु शिखर अभिषेक और उत्सव सुखकारी।
इन्द्रादिक ने किये, भक्ति कर में हर्षाऊँ,
जनम मरण की सन्तति नाशे यह वर पाऊँ ।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लत्रयोदश्यां जन्ममंगलमण्डिताय श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।
उल्कापात निहार विरागी हुए जिनेश्वर,
हुए माघ सित तेरस को निर्ग्रथ मुनीश्वर ।
धन्यसेन नृप धन्य प्रथम आहार कराया,
हुए पंच- आश्चर्य हर्ष जन-जन में छाया ।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लत्रयोदश्यां तपोमंगलमण्डिताय श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।
लगभग एक वर्ष मुनिपद में निजपद भाया,
रत्नपुरी दीक्षावन आकर ध्यान लगाया।
पौष शुक्ल पूनम दिन घाति कर्म नशाये,
समवशरण अरु अतिशय अन्य सहज प्रगटाये ॥
ॐ ह्रीं पौषशुक्लपूर्णिमायां ज्ञानमंगलमण्डिताय श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा।
श्री सम्मेदशिखर पर कर्म कलंक निवारे,
प्रभो चतुर्थी जेठ सुदी निर्वाण पधारे।
मुक्त स्वरूप विचार आपकी पूज रचाऊँ,
सम्यक् आराधन द्वारा निर्वाण सुपाऊँ ।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लचतुर्थ्यां मोक्षमंगलमण्डिताय श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।
जयमाला
(सोरठा)
जयमाला सुखकार, गाऊँ अति आनन्द सों
भाव रहे अविकार, भव-भव के बन्धन नशें ॥
(तर्ज- अहो जगत गुरु देव…)
धर्मनाथ जिनराज परम धरम दर्शाया,
रत्नत्रय अविकार, शिवपुर पंथ दिखाया।
प्रभो ! प्रयोजनभूत सप्त तत्त्व प्रगटाये,
उपादेय निज भाव हेय अन्य सब गाये ॥
निज- दृष्टि निज- ज्ञान अहो लीनता निज में,
निज - आश्रय से नाथ सहज बढ़े शिवमग में।
निज अनुभव रस कूप शिवपुर मूल जिनेश्वर,
तुमरे चरण प्रसाद जाना हे परमेश्वर ।।
त्रिभुवन मंगलकार प्रभुवर धर्म तुम्हारा,
मिले हमें अविकार जागा भाग्य हमारा।
पंचकल्याणक देव सुरगण आय मनावें,
तीन लोक के जीव सहजहिं साता पावें ॥
निकट भव्य तो नाथ लख सम्यक् प्रगटावें,
निर्मोही हो नाथ शिवमारग में धावें ।
दर्शन कर मुनिनाथ मुक्त स्वरूप दिखावे,
पूजत तुम्हें जिनेश मुक्ति समीप सु आवे ।।
स्व पर विवेक जगाय देव! गुणों का चिन्तन,
चाह दाह विनशाय होय धर्म आकिंचन।
धूल समान दिखाँय, जग के वैभव सारे,
पर पद आपद रूप, भोग भुजंग से कारे ॥
भक्ति कर जिनदेव यही भावना भाऊँ,
प्रभो! आप सम होय अपनी प्रभुता पाऊँ
तवपद मम उरमाँहि मम उर तुम चरणन में,
तब लौं लीन रहाय, थिरता होवे निज में |
(छन्द-घत्ता)
श्री धर्म जिनेश्वर हे परमेश्वर, जजत मुनीश्वर सुखकारी।
मैं भी प्रभु ध्याऊँ, कर्म नशाऊँ शिवपद पाऊँ अविकारी ॥
ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
(दोहा)
पूजत धर्म जिनेश को, सर्व क्लेश विनशाय।
अक्षय निज सम्पत्ति मिले, सिद्ध स्वपद प्रगटाय ॥
।।पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
रचयिता: बाल ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
Source: अध्यात्म पूजांजलि ,जिनेंद्र आराधना संग्रह