धर्म के दश लक्षण (भव्य प्रमोद) | Dharm ke Daslakshan (bhavya pramod)

(दोहा)
क्षमा मार्दव आर्जव, सत्य शौच तप त्याग ।
आकिंचन ब्रह्मचर्य दश, वृष पालें बड़भाग ॥

(उत्तम क्षमा)

क्षमा और शांति में सुखी रहै सदैव जीव,
क्रोध में न एक पल रहै सुख चैन से।
आवत ही क्रोध अङ्ग अङ्ग से पसेव गिरै,
होठ डसै, दाँत घिसै, आग झरै नैन से ||
औरन को मारै, आपनो शरीर कूट डारै,
नाक भौं चढ़ाय कुराफात बकै बैन से ।
ज्ञान-ध्यान भूल जात, आपा-पर करै घात,
ऐसे रिपु क्रोध को भगावो क्षमा सैन से ॥
(क्रोध का फल)
क्रोध कर मरै और मारै ताहि फाँसी होय,
किंचित् हू मारे बोहू जाय जेलखाने में ।
जो कहूँ निबल भये हाथ, पाँव, टूट गये,
ठौर ठौर पट्टी बंधी पड़े सफाखाने में ॥
पीछे से कुटम्बी जन हाय हाय करत फिरें,
जाय जाय पैरों पड़ें तैसील रु थाने में।।
किंचित् किये तैं क्रोध एते दुख होत भ्रात,
होत हैं अनेक गुण जरा गम खाने में ||

(उत्तम मार्दव)

ऊंच कुल जाति बल धनैश्वर्य प्रभुता का,
पुण्य उदै पाकर क्या मान करै बावरे ।
आपको महान जानि औरन कौ तुच्छ मानि,
पीकै मद मद्य धरै भूमि पै न पाँव रे ॥
बड़े बड़े धनी गुनी चक्रवर्ति शहंशाह,
ऊँचे चढ़ गिरे देख खोल तू किताब रे।
तातें अब छोड़ मान सभी को समान जान,
सर्व धर्म में प्रधान मार्दव कौ भाव रे ।।

(उत्तम आर्जव)

कपट कटार से गरीबन का गला काटि,
पाप की कमाई कहौ कै जनम खायेगा ।
धोखे छल छिद्र ब्लैक मारकीट से घसीट,
लाख कोड़ि जोड़-जोड़ साथ न ले जाएगा ||
हाकिम आ जाय खूब रिश्वत हूँ खाय देय,
जेल में पठाय उम्र सारी दुख पाएगा।
तातें छल छिद्र छोड़ि कपट कटार तोड़ि,
आर्जव से प्रीति जोड़ि धर्मी कहलायगा ॥

(उत्तम सत्य)

बड़ी नीठि नीठि से मिला है नर जन्म तुझे,
झूठ बोलि के खराब क्यों करै जबान रे
कर्कस कठोर दुष्ट झूठ बैन औरन के,
हृदै को विदार देत बान के समान रे ॥
पुरुष सत्यवादी का आदर जहान करै,
झूठे पुरुषों का कहीं होता नहिं मान रे ।
‘मक्खन’ सा नर्म मिष्ट शिष्ट सत्य बैन बोलि,
वशीकर्ण मंत्र यही कहैं भगवान रे ॥

(उत्तम शौच)

बावड़ी तलाब कूप सागर में स्नान किये,
होत नाहिं शौच गङ्ग यमुना में न्हाने से ।
मथुरा वृन्दावन नहिं काशी में शौच होत,
शौच नाहिं मन्दिर शिवालय में जाने से ॥
राम राम जपने से पञ्च अग्नि तपने से,
होत नाहिं शौच भाल चंदन लगाने से ।
लालच की कीच धोय लेकर सन्तोष तोय,
शौच धर्म होय राग-द्वेष के मिटाने से।।

(उत्तम संयम)

अश्व तुल्य चञ्चल मनेन्द्रिय पै हो सवार,
सावधान होकै मत छोड़ना लगाम को ।
नातर ये पाप गर्त माहिं तोहि डारि जाहि,
धर्म खेत खाय जाय मूल से तमाम को ॥
छोड़िकै अभक्षण को छहों काय रक्षा करि,
शिक्षण ले ग्रन्थन से जपो आत्म राम को ।
बारै व्रत पालि, रत्न संयम संभालि, विषै
चोर को निकालि, चलौ निश्चै शिवधाम को ॥

(उत्तम तप)

कर्म शैल तोड़न को वज्र के समान तप,
मोह अन्धकार के विनाशन को भान है ।
मिथ्या घनघोर घटा फारन को मारुत है,
पाप पुञ्ज जारन को अग्नि के समान है ।
प्रोषधादि द्वादश प्रकार बाह्य अभ्यन्तर, -
चित्त वृत्ति रोक करौ होय पूर्ण ज्ञान है।
शैल वन गुफा नदी किनारे ध्यानस्थ होय,
तपश्चरण किये पास आवै निरवान है ।।

(उत्तम त्याग)

दीन हीन दुखियों को दया कर दान देहु,
गुणियों को दान देहु मोद को बढ़ाय कै ।
द्रव्यहीन धर्मिन को गुप्त द्रव्य दान देहु,
मुनियों को दान देहु भक्ति चित्त लायकै ॥
औषध आहार अभै शास्त्र दान चार मुख्य,
शक्ति अनुसार देहु संपति कमाय कै ।
दान ही से ऋद्धि-सिद्धि, दान ही से होय वृद्धि,
देहु दान’ मक्खन’ मनुष्य जन्म पाय कै ॥

(उत्तम आकिंचन्य)

अम्बर को छोड़ के निरम्बर मुनीश हुये,
सम्बर को धार के दिगम्बर कहाये हैं ।
होय पर्म हंस कर्म वंश को मिटाय रहे,
आत्मीक धर्म में निशंक होय धाये हैं ।।
चार बीस ग्रन्थ त्याग लगे ज्ञान मन्थन में,
हरिग्रन्थ संत ग्रन्थन में गाये हैं ।
आस फाँस छेदत जे कर्म शैल भेदत जे,
आकिंचन धारी मुनि सभी को सुहाये हैं ।।

(उत्तम ब्रह्मचर्य)

ब्रह्म आतमा में ब्रह्मचारी सदा काल रमैं,
चित्त में न होय कभी कामदेव वासना ।
अप्सरा समान खड़ी देख दिव्य नारियों को,
किञ्चत् हू आवै जिनके विकार पास ना ।।
रात भर सुदर्शन से रानी ने रारि करी,
निर्विकार सेठ किया ब्रह्मचर्य नास ना ।
ब्रह्मचारियों पै पड़ें संकट अनेक आन,
धैर्य से सहन करें होत हैं हतास ना ॥

रचयिता: पं० मक्खनलाल जी