देखो-देखो प्रभु को देखो।
श्रद्धा-भक्ति से प्रभु देखो ।। 1 ।।
नहीं अन्धश्रद्धा’ हो मन में ।
नहीं चाह विषयों की मन में ।। 2 ।।
इच्छाओं की पूर्ति न चाहें।
इच्छाओं का नाश ही भाएँ ।। 3 ।।
व्यर्थ भटकना है जग माँही ।
परिग्रह में किंचित् सुख नाहीं ।। 4 ।।
तेरा सब कर्तृत्व’ है झूठा ।
जिनशासन का तत्त्व अनूठा ।। 5 ।।
पर की ओर कभी मत देखो।
अन्तर्मुख’ हो आतम देखो ।। 6 ।।
राग-द्वेष दोषों को त्यागो ।
ज्ञानी हो आतम में पागो ।। 7 ।।
क्लेश मिटे भव भ्रमण मिटेगा ।
निज में अक्षय सुख विलसेगा ।। 8 ।।
आत्मीक गुण प्रगटायेंगे ।
स्वयं प्रभु हम बन जायेगें ।। 9 ।।
उक्त रचना में प्रयुक्त हुए कुछ शब्दों के अर्थ-
१. अन्धश्रद्धा =अंधविश्वास
२. कर्त्तृत्व= करने का भाव
३. अन्तर्मुख= अपनी ओर देखना
४. विलसेगा = प्रकट होगा
पुस्तक का नाम:" प्रेरणा "
पाठ क्रमांक: ०६
रचयिता: बाल ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्