दीपचंद जी कासलीवाल | Deepchand ji Kaasliwaal

[दीपचंद जी कासलीवाल]

पण्डित दीपचंद जी कासलीवाल को पं. दीपचंद शाह। ये खण्डेलवाल थे तो कहीं पं. दीपचंद खण्डेलवाल। कहीं पर दीपचंद भाई जी और कहीं पर अकेला भाई जी ऐसा कहते हैं। ऊपर के मंगलाचरण में जो तीन छंद सुनाए एक पुस्तक है वो उपदेश सिद्धांत रत्न। दीपचंद जी कासलीवाल बहुत बड़े हीरो हैं। जैन धर्म की प्रभावना में बहुत बड़ा योगदान है। जैन साहित्य की, जिनवाणी की बहुत जबरदस्त आराधना की है। ये कौन थे?, कैसे थे ?, क्या इनका परिचय है? हम ये जानने की कोशिश कर रहे हैं तो हमको पता चल रहा है कि दीपचंद जी कासलीवाल का भी हमको कुछ परिचय प्राप्त नहीं होता। जैसे बड़े-बड़े हीरो हमारी धरती पर हुएं हैं लेकिन हमको उनका अता-पता मालूम नहीं है। ऐसे ही जैन-धर्म और जैन साहित्य के क्षेत्र में भी बड़े-बड़े नायक हुए हैं जिन्होंने निस्वार्थ भाव से, निष्काम भाव से जिनवाणी की सेवा की है और उनका कुछ भी परिचय हमको मिलता नहीं है। अब तक हमने जिन कवियों का परिचय प्राप्त किया बनारसीदास जी, भगवतीदास जी, द्यानतराय जी, भूधरदास जी, भागचंद जी, दौलतराम जी, जयचंद जी छाबड़ा, टोडरमल जी, टेकचंद जी, बुधजन जी, सदासुख दास जी, वृन्दावन दास जी। हमने कितने विद्वानों का परिचय प्राप्त किया हमको थोड़ा-थोड़ा चार छह लाइन का ही सही परिचय मिल जाता है। लेकिन दीपचंद जी कासलीवाल एक ऐसे व्यक्तित्व हैं कि जिनका हमको चार छह लाइन का भी परिचय नहीं पता चलता। बिल्कुल भी माता, पिता, जन्म का संवत्, निधन का संवत् कुछ आइडिया भी कि ये साल होगी एकदम एकुरेट साल भी पता नहीं चलती है कि ये कब हुए एकदम लेकिन जो पता चलता है वो दो बात जरा सी पता चलती है। एक बात तो इतना पता चलता है इनके ग्रंथों को पढ़ने से कि ये सांगानेर आमेर के ही रहने वाले थे। उस समय जयपुर बसा भी नहीं था। जयपुर तो वि. सं. १७८४ में बसा था और ये तो उससे भी पहले के हैं जब जयपुर की जगह पर जयपुर के दो कोनों पर एक सांगानेर था और एक आमेर था। इनका जन्म कहीं सांगानेर में हुआ लेकिन आमेर में बहुत अच्छी आध्यात्मिक शैली चलती थी उससमय इसलिए ये आमेर शिफ्ट हो गए थे बचपन में ही कोई भी कारण रहा होगा लेकिन ये आमेर शिफ्ट हो गए थे। तो एक तो ये बात सिद्ध हो गई कि हमने पहले आगरा के कवियों का परिचय प्राप्त किया था और अब जयपुर के कवियों का परिचय प्राप्त कर रहे हैं तो उन जयपुर के कवियों में ही ये दीपचंद जी कासलीवाल हैं। दूसरी बात ये पता चलती है कि दीपचंद जी कासलीवाल ने जो पन्द्रह-बीस किताबें लिखीं हैं। इनके बारे में क्यों नहीं पता चलता है कुछ भी बाकी के सब लोग अपनी रचनाओं के अंत में प्रशस्ति लिखते हैं। अपना परिचय सर्व जैसे जयचंद जी छाबड़ा का हमने बताया कि सर्वार्थ सिद्धि के अंत में ये लिखा, टोडरमल जी ने ये लिखा, द्यानतराय जी ने इस किताब के अंत में ऐसा लिखा तो इन्होंने तो किसी भी किताब के अंत में कहीं चार छह दोहे, चार छह लाइने अपने बारे में या अपने वातावरण के बारे में, राजा के बारे में कुछ भी नहीं लिखी जीरो बिल्कुल मौन हैं। सीधे किताब शुरू करते हैं और सीधे किताब पूरी हो जाती है। बस किताब पूरी होने के बाद ये कुछ नहीं लिखते। कि मैं ये हूं और मेरे पिताजी का ये नाम है इनकी प्रेरणा से मैंने इस साल में लिखा ऐसा कुछ भी पता नहीं चलता है। इसलिए हमको इनके बारे में कुछ पता नहीं चलता है। लेकिन इनकी पन्द्रह रचनाओं में से तीन रचनाओं के अंत में जैसे-तेसे कहीं तारीख डली हुई है लिपिकार ने डाली इन्होंने डाली जिसने भी डाली लेकिन कुछ थोड़ा संकेत दोहे का मिलता है और वो है एक पर मिलता है विक्रम संवत् १७७४ माने आज से तीन सौ पांच वर्ष पहले और एक पर मिलता है १७८१ और एक पर मिलता है १७७९ तो इससे ये जो तीन डेट मिलती है। ये पण्डित टोडरमल जी से भी कम से कम पच्चीस वर्ष पहले हुए हैं। बहुत बड़े हीरो से परिचित करा रहा हूं। दैदीप्यमान सूर्य हैं। इनका परिचय जानना बहुत जरूरी है। कितने निस्पृह अपने शरीर के बारे में, अपने बारे में, अपने गांव के बारे में एक अक्षर नहीं लिखा। जैसे बड़े-बड़े आचार्य काम करते थे। ऐसे ये काम कर गए। ये समय जैन-धर्म के पुनरुद्धार जागरण का समय था। जैन अध्यात्म के पुनर्जागरण का काल है ये। अगर ये कवि नहीं होते तो सुरक्षित नहीं रहता। ये कैसे विद्वानों ने तत्त्वज्ञान को असली तत्त्वज्ञान को कैसे सुरक्षित रखा। किताबों में रखा। जनता को बताया। तो ये बहुत बड़ा काम इन्होंने किया और इस काम की हम आसानी से वैल्यू नहीं कर सकते। ये हल्का काम नहीं है। जैसे पहले बड़े-बड़े आचार्य काम करते थे। वैसा काम है ये। आचार्य कल्प थे ये। आज से हजार वर्ष पहले तो बहुत बड़े-बड़े आचार्य हुआ करते थे। बाद में तो उन आचार्यों की परम्परा हुई बंद, देश में अंधकार काल आ गया। अशिक्षा फैल गई। धर्म के क्षेत्र में भी बहुत ज्यादा आडम्बर फैल गया। मुनि क्या होते हैं? लोग समझ ही नहीं सकते थे। मुनियों का स्वरूप विकृत हो गया। पूजा-पाठ का, उपदेश का सब स्वरूप विकृत हो गया। जैन-धर्म और धर्मों जैसा ही हो गया। वो ही कर्तावाद और वो ही अज्ञानता और वो ही क्रियाकाण्ड छा गया। ऐसे में इन कवियों ने फिर से जैन-धर्म का असली मर्म निकालकर के जनता को बताया। इनको हमें बहुत सावधानी से स्थापित करना है। इनकी महिमा जानना है। तब जाकर के जैन तत्त्वज्ञान को आगे बड़ा पाएंगे। पण्डित टोडरमल जी से भी कम से कम पच्चीस वर्ष पहले हुए हैं और पण्डित टोडरमल जी ने दीपचंद जी कासलीवाल को पढ़ा और पढ़कर बहुत प्रभावित हुए और उनके मोक्षमार्गप्रकाशक पर इसका प्रभाव दिखाई देता है। उन्होंने जो अनुभवप्रकाश, आत्मावलोकन लिखा उसका प्रभाव पण्डित टोडरमल जी की रहस्यपूर्ण चिट्ठी पर दिखाई देता है। ये दीपचंद जी कासलीवाल बहुत ही उच्च कोटि के आध्यात्मिक विद्वान थे। अध्यात्म के रस में सराबोर थे। मैंने साहित्य के इतिहास ग्रंथों में पढ़ा तो उसमें भी लिखा “दीपचंद जी शाह, दीपचंद जी कासलीवाल ये बहुत सादा जीवन उच्च विचार के व्यक्ति थे और आत्मानुभूति के पुजारी थे और तेरह पंथी सम्प्रदाय के अनुयायी थे और इनके पावन हृदय में संसारी जीवों की विभाव परिणति को देखकर अत्यंत दुख होता था और वे बहुत ही करुणा द्रवित हो जाते थे और वे चाहते थे कि संसार के सभी जीव बाह्य वस्तुओं में आत्मबुद्धि छोड़ दे उनको भ्रमवश अपना ना माने कर्मोदय से प्राप्त समझे और अपनी आत्मा में प्रवेश करे।” आत्मानुभूति जिनके सिर पर चौबीस घंटे सबार रहती थी जिनकी एक एक पंक्ति आत्मानुभूति के लिए समर्पित थी उन महान कवि का नाम है दीपचंद जी कासलीवाल तो ऐसे अद्भुत कवि हैं बहुत ही महान कवि हैं। उस जमाने में पण्डित टोडरमल जी के पहले के समय की आप कल्पना नहीं कर सकते जब जयपुर नहीं बसा था चारों और कोई सुविधाएं नहीं थी, लूट पाट क्या क्या होता था। कोई शिक्षा नहीं, बहुत विकृतियां ऐसी स्थित में इन्होंने उस जमाने में पन्द्रह बड़े-बड़े ग्रंथ लिखे हैं। पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामी दीपचंद जी शाह के बड़े दीवाने थे। चिद्विलास, अनुभवप्रकाश और आत्मावलोकन इन पर तो उन्होंने सभा में प्रवचन किए हैं। अनुभवप्रकाश दो तीन ग्रंथ तो उन्होंने गुजराती में ट्रान्सलेशन करवा कर सोनगढ़ से प्रकाशित करवाए हैं और ये उनके बहुत प्रिय ग्रंथ थे। आज तो बहुत सुविधा हो गई, बहुत अच्छी भाषा हो गई। उससमय भाषा का भी विकास नहीं हुआ था उनको हिन्दी ग्रंथ मिले नहीं थे। उन्होंने प्रवचनसार मूल में पढ़ा था प्राकृत में, समयसार मूल में पढ़ा था। समयसार का अनुवाद तो बाद में किया है जयचंद जी छाबड़ा ने उन्होंने मूल ग्रंथों को पढ़ा और पढ़ करके कहीं-कहीं जगह थोड़े उद्धरण भी दिए हैं कई-कई ग्रंथों के और बहुत अच्छे से उन्होंने चित्रण किया है और टूटी-फूटी भाषा भी उन्होंने इस्तेमाल की। भाषा नहीं। बन रही है लेकिन ताकत पूरी लगा रहे हैं। उत्साह पूरा है और बहुत अच्छे-अच्छे सरस, मनोरंजक लोकप्रिय उदाहरण देते हैं। दीपचंद जी कासलीवाल की एक सबसे बड़ी विशेषता है उदाहरण शैली। इतने उदाहरण भरे हैं छोटे-छोटे। एक चापा का उदाहरण तो गुरुदेव श्री बहुत याद करते थे। एक चापा नाम का ग्वाला था। एक दिन चापा धतूरा पीकर अपने ही घर में आ गया और कहता है कि चापा का घर है क्या? चापा है क्या? तो उसकी पत्नी पूछती है तुम कौन हो फिर, अच्छा!! मैं ही चापा हूं। तो उदाहरण देके इसमें बताया कि ये ही दशा हमारी हो रही है कि हम अपने आप को सारी दुनियां में खोज रहे हैं कहां है? कहां है? आत्मा कहां है? सुख कहां है? अपने घर में सुख है। हम स्वयं आत्मा, ज्ञानानंद के भण्डार हैं और हम भटक रहे हैं तो ऐसा बहुत बढ़िया बढ़िया उदाहरण हैं स्वीकार करो। एक व्यक्ति बाजार में गया एक उदाहरण और दिया इन्होंने। बाजार में गया तो उससे पूछा तुम्हारे पुत्र है तो कहता है है तो उससे पूछा कहां है पुत्र? पुत्र उसके साथ नहीं था। पुत्र घर है लेकिन पुत्र बाजार में नहीं है फिर भी वो ये नहीं भूलता है कि नहीं है। वो कहता है है तो बोले जब पुत्र पास में नहीं है घर पर है फिर भी तुम बोलते हो पुत्र है और तेरा भगवान आत्मा हाजरा हुजूर चौबीस घण्टे तेरे साथ है तू बाजार में जाता है और तू कहता है नहीं है। ऐसी सुन्दर-सुन्दर बहुत सी चर्चाएं भरी पड़ीं हैं। मैं तो अपने आनंद के लिए इन कवियों में डूब रहा हूं। ऐसा रस परिपाक हो रहा है कि कुछ पूछो ही मत। दीपचंद जी को कोई इन्ट्रेस्ट नहीं है कि आप इनके बारे में जानो। उनका क्या नाम था? क्या गांव था? कितनी उम्र थी? किस दिन पैदा हुए थे? कितने भाई-बहन थे? कौन बेटा-बेटी था? क्या काम करते थे? उनको इन चीजों में कोई इन्ट्रेस्ट नहीं है और बड़े अच्छे-अच्छे दृष्टांत सम्राट दीपचंद जी। अगर मैं दीपचंद जी को कोई उपाधि देना चाहूं तो ‘दृष्टांत सम्राट’। इतने बढ़िया-बढ़िया दृष्टांत देते हैं। तीन गुफा मिलेगी तुम वहां जाओगे तो पहली गुफा पार कर जाना घबराना नहीं फिर दूसरी गुफा मिलेगी घबराना नहीं ये पहली गुफा नोकर्म की है। दूसरी गुफा द्रव्य कर्म की है। अभी तू घबराना मत तीसरी गुफा में चले जाना वहां तुम्हें भावकर्म की भीड़ मिलेगी लेकिन तुम वहां भी मत घबराना अगर तुम घबराओगे नहीं तीन गुफा पार कर जाओगे तो तुमको उसके बाद में चैतन्य राजा मिलेगा उसके दर्शन होंगे। हाहाहा! अरे ऐसे-ऐसे रस लेकर के इन्होंने सुनाया है कि गदगद हो रहा हूं। ये कवि पढ़ने लायक हैं, सुनने लायक हैं और ये बहुत स्वाध्याय करने लायक हैं। इनकी रचनाओं के बारे में बताता हूं। पन्द्रह रचनाएं हैं।

दीपचंद जी शाह की ग्रन्थावली का काम चल रहा है ब्र. कल्पना बहिन जी बहुत अच्छा इनका संपादन कर रहीं हैं और दो भाग इसके प्रकाशित हो चुके हैं। दीपचंद ग्रन्थावली भाग १ और भाग २ , भाग ३ और भाग ४ अभी छपा नहीं है वो अभी छपने वाला है। दोनों भागों में उनकी ८ रचनाएं आ गईं हैं। बाकी की रचनाएं आगे भाग छपेंगे उसमें आएगी।

उनके विचार क्या थे उनसे परिचित होते हैं –

उनकी रचनाएं

पहली चिद्विलास बहुत प्रसिद्ध रचना है। १७७९ वि. संवत् में ये रचना लिखी गई है। आत्मा का विलास लेकिन ये चिद्विलास दार्शनिक ग्रंथ है। चिद्वास को आप समझो प्रवचनसार और अनुभव प्रकाश और आत्मावलोकन को समझो समयसार लेकिन दोनों अध्यात्म के हैं दोनों द्रव्यानुयोग हैं लेकिन जो फर्क समयसार और प्रवचनसार में है वो फर्क इसमें है।

चिद्विलास में क्या-क्या विषयवस्तु आई है -

द्रव्य वर्णन, गुण वर्णन, पर्याय वर्णन, कारण कार्य व्यवस्था, सामान्य विशेषात्मक वस्तु, स्याद्वाद का स्वरूप, नयों का स्वरूप, चैतन्य के विलास की बात इस ग्रंथ का कनक्लूजन है। ये उन्होंने चिद्विलास जैसा आध्यात्मिक नाम क्यों रखा क्योंकि कनक्लूजन वो ही आना है। वो पहले सारी बात वो हमको समझा रहे हैं ये जगत व्यवस्था, कारण कार्य व्यवस्था क्या है? वो समझाते हैं तो द्रव्य, गुण, पर्याय, कारण कार्य, सामान्य विशेष, स्याद्वाद, नय, अनन्तशक्तियां ४७ शक्तियों का भी वर्णन इसमें आ गया इन्होंने ४७ शक्तियों के अलावा भी कुछ एक्स्ट्रा शक्तियां निकालकर दिखाई है वो इनका मौलिक योगदान है। उस जमाने में ४७ शक्तियां पढ़कर इन्होंने कुछ और शक्तियां बना लीं वो एक बड़ी बात है। गुरुदेव ने भी बहुत बनाई। ये इतनी सारी पृष्ठभूमि बनाकर फिर बाद में परमात्मा के स्वरूप प्राप्ति का क्या उपाय है? हेडिंग डालते हैं, फिर है अनंत संसार कैसे मिटे, फिर है समाधि आपको जानकर ताज्जुब होगा कि ये जो इन्होंने समाधि का टॉपिक लिखा है इसमें उन्होंने सब दर्शनों में समाधि क्या होती है ? सांख्य दर्शन में समाधि, योग दर्शन में समाधि। जैन लोग आध्यात्मिक पण्डित होते हैं ऐसा नहीं है कि वो कम बुद्धिमान होते हैं बहुत ब्रिलियंट होते हैं बहुत उच्च कोटि के फिलोसोफर होते हैं दीपचंद जी कासलीवाल प्रोर अध्यात्मी हैं लेकिन उनको हर दर्शन में, आप चिद्विलास का समाधि वाला प्रकरण पढ़ो तो आपको पता चलेगा कि उनको छह दर्शनों का कितना गहरा अध्ययन था- योगदर्शन में समाधि इसको कहते हैं, न्यायदर्शन में समाधि इसको कहते हैं, सम्प्रज्ञात समाधि क्या होती है ? सबका डिटेल वर्णन किया कमाल कर दिया तो चिद्विलास ये उनका बहुत अद्भुत ग्रंथ है। दूसरा ग्रंथ है आत्मावलोकन ये भी बहुत बढ़िया ग्रंथ है इस आत्मावलोकन पर भी गुरुदेव ने प्रवचन किए और आपको बताया कि इसमें दृष्टांत भरे हुए हैं बहुत सारे और आत्मावलोकन में क्या-क्या बातें आई हैं ? देखो! आत्मावलोकन में चौदह प्राकृत गाथाओं के आधार पर सारी बात कही है एक आश्चर्य मुझे ये हुआ कि ये चौदह प्राकृत गाथाएं कहां से आईं? मुझे लगता है कि दीपचंद जी ने स्वयं चौदह प्राकृत गाथाएं रचीं। दीपचंद जी का प्राकृत साहित्य के इतिहास में नाम आना चाहिए। दीपचंद जी का नाम हिन्दी साहित्य के इतिहास में भी आना चाहिए और प्राकृत के महाकवि के रूप में भी नाम आना चाहिए। इन्होंने बहुत बढ़िया-बढ़िया १४ प्राकृत गाथाएं लिखीं और गाथाएं लिखकर के उन गाथाओं की सुन्दर-सुन्दर टीका लिखी और टीका के हेडिंग क्या डाले वो देखो! आत्मावलोकन के हेडिंग-

देवाधिकार, अच्छा इनका चित्त बहुत व्यवस्थित था इन्होंने साफ-साफ लिखा है कि प्रथम तो कुगुरु-कुदेव-कुधर्म का त्याग करो तो पहला है देवाधिकार। गुरु अधिकार - गुरु का विपरीत श्रद्धान नहीं होना चाहिए। धर्म अधिकार, विधिवाद- क्या वस्तुकी व्यवस्था है वो समझो। चारित्रवाद, यथास्थिति वाद, ज्ञेयवाद, हेयवाद, उपादेय वाद। देखो ये इनके मौलिक योगदान है जैसे टोडरमल जी साहब ने प्रकरण निकाले हैं ना निश्चयाभासी, व्यवहाराभासी। दीपचंद जी कासलीवाल पर बहुत बढ़िया पीएचडी होना चाहिए मौलिक योगदान निकलकर आएंगे। आगे देखो! व्यवहारवर्णन, निश्चय वर्णन, साक्षात धर्म, बहिर्धर्म, मिश्रधर्म और आप देखो! आत्मावलोकन में दश अधिकार समयसार के मिलते हैं उनके नाम - जीवाधिकार, अजीवाधिकार, कर्ताकर्म क्रिया अधिकार, पुण्य पाप अधिकार, आश्रव अधिकार, बंध अधिकार, संवर अधिकार, निर्जरा अधिकार, मोक्ष अधिकार, सम्यक भाव अधिकार, सम्यक निर्णय अधिकार, साध्य-साधक भाव अधिकार, मोक्ष मार्ग अधिकार, अन्तर्व्यवस्था अधिकार, सम्यक्दृष्टि अधिकार, सम्यक्त्व गुण अधिकार, संसार कर्तृत्व अधिकार, आत्मानुभव वर्णन अधिकार और अन्यत किञ्चित कथ्यते अधिकार, कुछ और हम कहना चाहते हैं अधिकार। इतने सारे अधिकार बनाकर के ग्रंथ लिखना, देखो भाई! समझो-समझो! ये तो हम जल्दबाजी में जैसे हो रहा है वैसे कर रहे हैं। ये सब काम कैसे करना चाहिए। एक बहुत विशाल आयोजन करना चाहिए। महीनों की तैयारी होनी चाहिए और लोग इकट्ठे करकर दुनियां को परिचय कराना चाहिए कि ये कौन थे? इनका उत्सव मनाना चाहिए। अरे दुनियां में कोई छोटा-सा काम करता है तो लोग उसकी स्टेच्यू लगाते हैं, उसके नाम पर रोड़ रखते हैं और हमारे इतने बड़े-बड़े साहित्यकार हम अपनी पीढ़ियों को बताएंगे नहीं, जानेने नहीं तो कैसे काम चलेगा। इनका कोई मूल्यांकन, इनका कोई योगदान हम देख सकते हैं तो वो इनकी रचनाएं अनुभव प्रकाश आपको बताया, आत्मावलोकन आपको बताया, चिद्विलास, एक और रचना है भावदीपिका टोडरमल स्मारक से छपी हुई है और उसमें आठ अधिकार हैं और बहुत बढ़िया भावदीपिका इनका ग्रंथ है जिसमें पांच भाव जीव के जो हैं, ५३ भाव जो बनते हैं टोटल उनका बहुत अच्छा वर्णन है। पहले सामान्य अधिकार है, फिर पारिणामिक भाव अधिकार है, कर्म अधिकार, औदरिक भाव अधिकार, क्षायोपशमिक भाव अधिकार, औपशमिक भाव अधिकार, क्षायिक भाव अधिकार और फिर चूलिका है और सबसे बड़ी बात करणानुयोग, द्रव्यानुयोग की मैत्री पूर्वक वर्णन किया है इसमें सारे ५३ भाव का तो यशपाल जी ब्र. ने इसका बहुत बढ़िया संपादन किया है। बहुत बढ़िया स्वाध्याय करने लायक ग्रंथ है और इसके बाद में एक इन्होंने बहुत सुंदर ग्रंथ लिखा है परमात्म पुराण और इसके बारे में लिखा है नाथूराम प्रेमी ने संसार के इतिहास में पुराण साहित्य में ऐसा ग्रंथ नहीं मिलता। ‘परमात्म पुराण यथार्थ में गद्य की एक ऐसी अपूर्व रचना है जो हिन्दी साहित्य में इसके पूर्व कभी नहीं रची गई’ और ऐसा पुराण आपको पुराण सुनकर लगेगा कि ये कोई प्रथमानुयोग का ग्रंथ होगा। ये कोई कहानी होगी लेकिन ये प्रथमानुयोग का ग्रंथ नहीं है मित्रों! ये कोई कहानी नहीं है, तो क्या है ये ? है तो कहानी ही, कहानी सम्राट हैं दीपचंद जी ने उपमा, रूपक, सांगरूपक बनाने में इतने होशियार हैं तो इन्होंने जो परमात्म पुराण है इस परमात्म पुराण में क्या किया है कि पूरा का पूरा पुराण है लेकिन वो पुराण किसी दूसरे राजा का नहीं है अपने आत्मा राजा का है। इसमें शुद्धात्मा राजा है। दर्शन, गुण मंत्री हैं। ज्ञान गुण एक दूसरा मंत्री है। फौजदार का नाम है सम्यग्दर्शन। परिणाम कोतवाल है। १९६ सवैया हैं इसमें और बहुत बढ़िया बीच-बीच में दोहे हैं और इतना सुन्दर परमात्म पुराण है बोले वो परमात्म पुराण अपनी शिव रानी पत्नी से मिलता है। कैसे मिलता है? बीच-बीच में बहुत संघर्ष होते हैं कहानी में बहुत अप एण्ड डाउन उतार-चढ़ाव आते हैं और आने के बाद में उस शुद्धात्मा रूपी राजा का अपनी शिव रानी रूपी रमणी से मिलन होता है उन्होंने नवरस का वर्णन भी किया कि ऐसे मिलन हुआ, युद्ध हुआ इतने संघर्ष हुए और फिर उनके आनंद नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। ऐसे ऐसे बहुत बढ़िया-बढ़िया इन्होंने रूपक बनाकर के ये परमात्म पुराण लिखा। फिर इनकी एक और गजब की रचना है अनुभवानन्द और एक किताब नाम है स्वरूपानंद देखो! इनकी हर किताब का नाम आत्मा पर आत्मावलोकन, अनुभव प्रकाश, चिद्विलास, परमात्म पुराण, अनुभव आनंद, स्वरूप आनन्द। अनुभव आनंद बिल्कुल ऐसा है जैसे आदिपुराण और इसकी बहुत सरस और अनूठी शैली है इसमें ५४ सर्ग हैं और ५४ सर्गों में इसमें भी वैसे ही रूपक बनाया है यहां चेतन को राजा बनाया है। चेतन नायक है, मुक्ति नायिका है और अगम दुर्ग है और बारात आती है। बारात का चित्रण है। चेतन मुक्तिरानी का वरण करने के लिए जाता है तो बारात कैसे जा रही है? बाराती कौन-कौन हैं? बारात लौट के कहां आ रही है? कैसे खाना खाया है? आप समझ रहे हो क्या बारात और क्या खाना? आप लड्डू पूड़ी मत समझ लेना ये बारात, बाराती और लड्डू पूड़ी सब आध्यात्मिक बातें हैं

एक जोगी असल बनावे, आप बनावे आपही खावे।

भोजन भी आध्यात्मिक है। ज्ञानामृतम् भोजनम्। फिर दोनों के दोनों जाते हैं ना जैसे कोई हनीमून बनाने जाते हैं तो बोले वो घूमने गए वनविहार करने गए फिर क्या-क्या हुआ? फिर सुभाषित, लोकोत्ति कहने का मतलब ये कि ये शैली क्यों अपनाई उन्होंने? जनरल पब्लिक को अध्यात्म की तरफ अट्रैक्ट करने के लिए मुझे ऐसा लगता है कि इसके आधार पर उससमय में नुक्कड़ नाटक, रामलीला, सांस्कृतिक कार्यक्रम होते होंगे और पब्लिक को अध्यात्म के रस्ते पर लगाया जाता होगा ताकि उनको पता चले कि ये सब क्या-क्या चीज है? तो ऐसे-ऐसे उन्होंने अद्भुत ग्रंथ लिखे और इतना उनके अन्दर ज्ञान का, अध्यात्म का भण्डार और दया तो इतनी है - हे भाई! तू जान! जानता क्यों नहीं! अरे जानने वाले को जान ना वो इतना सरल है! देखने वाले को देख ना! वो तू ही तो है। ऐसे-ऐसे बहुत करुणा के साथ में उन्होंने एक-एक ग्रंथ लिखा फिर सुनो! अगला एक ग्रंथ है सवैया टीका एक छोटा सा ग्रंथ है। अध्यात्म पंच संग्रह है देवेन्द्र कुमार जी शास्त्री नीमच वाले थे उन्होंने इसका संपादन किया और सदासुख ग्रंथमाला से ये छपी हुई है और इसमें पांच रचनाएं हैं अनुभवानंद, ज्ञानदर्पण, स्वरूपानंद, परमात्म पुराण और सवैया टीका है सवैया टीका वो आठ-दश पन्ने की है लेकिन इन्होंने स्वयं ही सवैया लिखा और बाद में उसकी खुद ही व्याख्या की एक सवैये में ये बताना चाहा कि मैंने सवैये लिखे हैं ना उनमें इतना-इतना मर्म है। मैं एक खोल के बता रहा हूं तुम्हें दश पन्ने में ऐसे मैंने जितने सवैये लिखे हैं हर सवैये में आपको उनका मर्म निकालना पड़ेगा तब आप समझोगे। ज्ञानदर्पण यद्विद्यादर्पणायते बहुत जगह जगह ज्ञान को दर्पण की उपमा दी गई है। दर्पण वीतराग विज्ञानता का प्रतीक है। हमारे अष्ट मूलगुण में दर्पण आता है। दर्पण की आप कोई महिमा नहीं बता सकते अद्भुत महिमा शाली है क्यों? क्योंकि वो अप्रभावित रहकर जानता है, जानकर भी अप्रभावित रहता है। दर्पण क्यों महान है? क्योंकि वो आपको ये शिक्षा देता है कि जानो पर राग-द्वेष मत करो, प्रभावित मत हो, अप्रभावित रहकर जानो और जानकर अप्रभावित रहो और फिर एक और बढ़िया रचना है उपदेश सिद्धांत रत्न। उपदेश सिद्धांत रत्न की ये खास बात है कि इसमें कुछ व्यावहारिक बातें भी आई हैं इसमें बहुत तत्त्वज्ञान की बातें भी आईं, फिलोसॉफी की बातें भी आईं, अध्यात्म की भी आईं लेकिन कुछ बातें बिल्कुल व्यवहार की आईं। दीपचंद जी के हमारे सामने चार व्यक्तित्व आ गए।

१. उच्च कोटि के फिलोस्फर।

२. बहुत उच्च कोटि के आध्यात्मिक।

३.उच्च कोटि के प्राकृत कवि।

४. अत्यंत व्यवहार कुशल, पवित्र व्यवहार वाले।

क्रोड़ों खर्चे पाप में, कोड़ी धर्म न लाय ।

सो पापी मरे नरक में, आगे आगे जाय।।

पाप कार्यों में तो जो तू करोड़ों खर्च करता है पर धर्म में एक फूटी कोड़ी खर्च नहीं करता ऐसा व्यक्ति नरकगामी होता है। कितना व्यावहारिक पद, ये पात्रता तैयार करने के लिए लिखा।

मान बड़ाई कारणे, जे धन खर्चे लाय‌।

धर्म अर्थ कोड़ी गए रोबत करे पुकार।।

मान बड़ाई के लिए तो तुम लाखों, हजार खर्च करते हो रे! लेकिन तुम धर्म के अर्थ तुम सिर्फ माने दान की और साधर्मी वात्सल्य की , साधर्मी वात्सल्य का एक छंद सुनाता हूं :

साधरमी निरधन देख के चुरावे मन

धरम के हेतु कछु हिए नाहीं आगे है ।

सुत परिवार तिया इनसों लगाये जिया

इनही के काज मूढ़ लाखन लगावे है।।

नरक को बंध करे हिय में अरक धरे।

जनम सफल माने मानी के उमावे है।।

नेक हित किए भव सागर को पार होत।

धरम को हेत ऐसो श्रीगुरु बतावे है ।।

अरे! पाप कार्य के लिए, परिवार के लिए, विषय भोग के लिए, पिकनिक के लिए, खाने-पीने घूमने फिरने के लिए तू लाखों खर्च करता है साधर्मी निर्धन है तेरे से कैसे देखा जाता है। इस रचना का नाम उपदेश सिद्धांत रत्न। बहुत बढ़िया रचना है इसके अलावा एक इन्होंने स्तोत्र भी लिखा है आपने बहुत स्तोत्र भी बहुत सुने होंगे स्वयंभू स्तोत्र, कल्याण मंदिर स्तोत्र, विषापहार स्तोत्र, भक्तामर स्तोत्र पर दीपचंद जी ने भी एक स्तोत्र लिखा है और उस स्तोत्र का नाम है आत्मावलोकन स्तोत्र। आत्मा का अवलोकन करने वाला ये स्तोत्र है।

मैं चेतन हूं ज्ञान हूं, हूं दर्शन सुखभोग।

हूं अरहंत सिद्ध महान यूं ही हूं सुखपोष।।

आत्मावलोकन पुस्तक के अंत में छपा है ये‌।

एक इन्होंने अध्यात्म पच्चीसी लिखी है। एक द्वादशानुप्रेक्षा लिखी है। एक इन्होंने आरती विनती लिखी है पर देखने में कहीं नहीं आई। आरती का मतलब भी यहां आध्यात्मिक ही होगी कोई मिलेगी तब बताऊंगा लेकिन ये बहुत महान कवि हैं। हम इनका नाम ले रहे हैं अपना जीह्वा पवित्र हो रही है। हमारी आंखें पवित्र हो रही है इनकी रचनाओं को पढ़कर के ये हीरो भी जैन धर्म के और हीरे भी हैं। जैन हीरों का बहुत बढ़िया-बढ़िया परिचय प्राप्त कर रहे हैं। मैं फिर एक बार ये बात कहूंगा कि जब हमारे पास आचार्य नहीं बचे। जैन-धर्म का मर्म खो गया तब इन कवियों ने विद्वानों ने हमको भगवान तीर्थंकरों की असली वाणी, अनन्त तीर्थंकरों का हृदय इन्होंने बताया है इनका अनन्त उपकार है, अनन्त उपकार है इनका हमको उपकार मानना चाहिए। स्थापित करना चाहिए और इसके लिए बढ़िया-बढ़िया योजना बनाना चाहिए। ये जीवित रहे तो हम जीवित हैं, ये चले गए तो हम चले गए। ये वे कवि हैं यदि ये मृत हो गए तो जिनशासन मृत हो जाएगा और ये जीवित रहे तो जिनशासन जीवित रहेगा इसलिए इनको हम सब पढ़ें।

आदरणीय वीरसागरजी भाईसाहब के प्रवचन से संकलित।
जैन हीरोज सीरीज

इत्यलम्

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