दीप अपना आप ही बनकर चलो | Deep apna AAP hi bankar chalo

क्या पता कब मौत की आंधी चले,
और जीवन का दिया तेरा बुझे ।

क्या पता कब देह का पिंजरा खुले,
और यह खग प्राण का नभ में उड़े || १ ||

एक पल में क्या घटे किसको पता,
क्या बने और क्या मिटे, किसको पता ।

जिन्दगी तो ओस कण सी है क्षणिक,
कब गिरे और कब लुटे किसको पता ॥२॥

हो गया कितना अतीत व्यतीत हो,
किन्तु जब जागो तभी ही भोर हो ।

बाहरी घुड़ दौड़ को तुम बन्द कर,
मात्र अन्तर को तनिक झकझोर लो || ३ ||

व्यस्तता मन की बड़ी ही क्षुद्र है,
व्यस्तता के तोड़कर, बन्धन चलो,

दूसरों की रोशनी में कुछ नहीं,
दीप अपना आप ही बनकर जलो ॥४॥

ज्ञान सागर में अरे! निज नाव को,
जिधर जाती है उधर ही छोड़ दो।

ज्ञानमय निज आत्मा के लोक प्रति,
सुखद यात्रा की दिशा को मोड़ दो ॥ ५ ॥

  • गुलाबचन्द ‘वात्सल्य’ छिंदवाड़ा