Daslakshan pujan chand arth | दसलक्षण पूजन छंद अर्थ

उत्तम क्षमा धर्म

(सोरठा)
पीढें दुष्ट अनेक, बाँध-मार बहुविधि करे।
धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजे पीतमा।।

(चौपाई)
उत्तम क्षमा गहो रे भाई, यह भव जस-पर भव सुखदाई।
गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगुन कहे अयानो।।

(गीतिका)
कहि है अयानो वस्तु छीने, बाँध मार बहुविधि करे।
घर तें निकारे तन विदारे, बैर जो न तहँ धरे।।
जे करम पूरब किये खोटे, सहे क्यों नहीं जीयरा।
अति क्रोध अग्नि बुझाय प्राणी, साम्य-जल ले सीयरा।।

अर्थ:
आदरणीय कविवर पंडित द्यानतराय जी कहते हैं, “दुष्ट-चित्त (मन) के धारकों द्वारा अनेक प्रकार की पीड़ा (बाधाएँ, परेशानियाँ, रुकावट) पहुंचाए जाने पर भी, बाँधने पर भी, मारने इत्यादि पर भी विवेकी जीवों को क्षमा तथा विवेक का त्याग नहीं करना चाहिए तथा कोप (क्रोध, गुस्सा) नहीं करना चाहिए।”
आगे कविवर कहते हैं, “हे भव्य जीवो! उत्तम क्षमा को गहो (ग्रहण,धारण करो) क्योंकि यह इस भव में यश तथा पर (दूसरे, आगे के) भव में भी सुख का कारण है।”
“विवेकी जन गाली को सुनकर भी मन में खेद नहीं करते हैं।”
तथा, “गुण को अवगुण कहने पर भी, स्वभाव के विपरीत बात कहने पर भी उन्हें क्रोध नहीं आता।”
“अब चाहे वह उल्टी बात करे, अपनी वस्तु छीन ले, बाँधे, मारे, घर से निकाले, तन (शरीर) को छिन्न-भिन्न कर दे, तो भी उनसे बैर करना श्रेयस्कर नहीं है।”
क्योंकि, “हमारे द्वारा पूर्व में किये गए पापों का फल तो आएगा ही, उनको सहन हम नहीं तो कौन सहन करेगा? इसलिए क्रोध-रूपी अग्नि को बुझाकर साम्य (समता) भाव रूपी जल उस अग्नि पर सिंचन करना चाहिए।”

उत्तम मार्दव धर्म

(सोरठा)
मान महा-विष-रूप, करहि नीच गति जगत में।
कोमल सुधा अनूप, सुख पावे प्राणी सदा।।

(चौपाई)
उत्तम मार्दव गुण मन माना, मान करन को कौन ठिकाना?
बस्यो निगोद माँहि तें आया, दमड़ी रूंकन भाग बिकया।।

(गीतिका)
रूकन बिकाया भाग वशतें, देव इक-इंद्री भया।
उत्तम मुआ चांडाल हूवा, भूप कीड़ों में गया।।
जीतव्य जोवन धन गुमान, कहा करे जल-बुदबुदा।
करि विनय बहु-गुन बड़े जन की, ज्ञान का पावें उदा।।

अर्थ:
कविवर कहते हैं, “मान महाविष रूप (हलाहल ज़हर) के समान है तथा नीच गति (नरक,तिर्यंच) का कारण है।”
“कोमलता अर्थात मार्दव अमृत के समान है और उसको धारण करने वाला प्राणी निरंतर सुख ही पाता है।”
आगे, “उत्तम मार्दव गुण मन में लाना चाहिये क्योंकि मान करने के लिए जगत में कोई भी वस्तु नहीं है।
अनादिकाल से यह जीव (मैं) निगोद में रहा तथा वनस्पति-कायिक में जन्म लेने पर दमड़ी (कौड़ियों) के भाव बिका।”
[बाजार में सब्जी लेते समय जो भाजी डलवाते हैं (यहाँ पंडित जी ने उसे रूंकन कह रहे हैं), उसकी कोई कीमत नहीं देता। उसकी ही बात यहाँ पंडित जी कर रहे हैं, कि हम उस गति में जाकर हो आये, तो घमंड करने के लिए कहाँ अवसर रहा?]
आगे पंडित जी लिखते हैं, “मैं जीव कहाँ-कहाँ किन-किन गतियों में गया? कि, मैं भाग्यवश देव हुआ, परंतु वहाँ भी मोह के कारण वहाँ से एक इन्द्रिय अवस्था में चला गया। कभी उत्तम मनुष्य हुआ, कभी चांडाल हुआ, कभी राजा बना तो कभी कीड़े की अवस्था में चला गया।”
मतलब, “देव भी जब एक-इन्द्रिय जीव, उत्तम कुलीन मनुष्य भी चाण्डाल तथा राजा भी जब कीड़ा बन सकता है, तो किस बात का मान?“
अतः, “जीवन, यौवन तथा धन का गुमान (घमंड) करने लायक नहीं है क्योंकि ये तो जल के बुलबुले के समान कुछ समय में ही नष्ट होने वाले हैं।”
और “जो जीव अपने से बड़ेजनों (वय अर्थात उम्र तथा गुणों में बड़े) की विनय करते हैं, उन्हें ही सम्यक ज्ञान की प्राप्ति होती है।”
इस प्रकार, सर्व प्रकार के, सर्व प्रकार से इस मद, अभिमान, घमंड या मान का त्याग कर के समता धारण करना योग्य है।

उत्तम आर्जव धर्म

(सोरठा)
कपट न कीजे कोय, चोरन के पुर ना बसें।
सरल-सुभावी होय, ताके घर बहु-संपदा।।

(चौपाई)
उत्तम आर्जव-रीति बखानी, रंचक दगा बहुत दु:खदानी।
मन में होय सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सों करिये।।

(गीतिका)
करिये सरल तिहुँ जोग अपने, देख निरमल आरसी।
मुख करे जैसा लखे तैसा, कपट-प्रीति अंगार-सी।।
नहिं लहे लछमी अधिक छल करि, कर्म-बंध-विशेषता।
भय-त्यागि दूध बिलाव पीवे, आपदा नहिं देखता।।

अर्थ:
पंडित जी फरमाते हैं, “किसी को भी छल-कपट कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि चोरों के गांव कभी नहीं बसते” (ऐसा दुनिया में कोई भी गांव/शहर नहीं जहाँ मात्र चोर ही रहते हों, क्योंकि चोरी के कार्य में भी विश्वास का होना ज़रूरी है)।
“जो जीव सरल स्वभावी होते हैं, उनके घर में संपदा की अपने आप वृद्धि होती है।”
आगे पंडित जी लिखते हैं, “इस जगत में भी उत्तम आर्जव की ही रीति (प्रथा) अच्छी मानी है तथा रंच (थोड़ी-सी) भी दगा (बेईमानी) बहुत दुख को देने वाली होती है।”
इससे बचने के लिए, “जो मन में हो, उसे ही वचनों से कहना चाहिए तथा जो वचनों से कहें, वह क्रिया अर्थात आचरण में भी होना चाहिए।”
[यहां यह बात विशेष समझना कि अच्छी बातों को ही मन में सोचना चाहिए, वचनों से बोलना चाहिए तथा आचरण में लाना चाहिए। बुरे; असभ्य; दूसरों को हानि, दुख पहुंचाने वाले न तो विचार करना चाहिए, यदि विचार आ जाएं तो वचन में नहीं कहना चाहिए तथा वचनों में कदाचित आ भी जाए, तो आचरण में तो बिल्कुल भी नहीं लाना चाहिए।]
आगे पंडित जी कहते हैं, “जीवों को अपने तीनों योग (मन-वचन-काय) में एकता, समानता लाना योग्य है।”
“जिस प्रकार दर्पण सरल व स्वच्छ होता है, जैसा उसके सामने मुख (चेहरा) होता है, वैसा ही दिखाता है; वैसे ही हमें भी अपने मन-वचन-काय में समानता रखनी चाहिए।”
“तथा कपट से प्रीति (लगाव) अंगारे के समान है। जिसप्रकार अंगारे, ऊपर राख होने से ठंडे दिखते हैं, परंतु अंदर अग्नि होने के कारण छूने पर जला देते हैं; वैसे ही, कपट का भाव ऊपर से तो बहुत अच्छा दिखता है (ऐसा लगता है जैसे मैंने दूसरे को ठग लिया, बहुत अच्छा किया) परंतु वास्तविकता में ठग/कपटी स्वयं को ही ठग रहा है।” क्योंकि, कोई और ठगाया जाए अथवा नहीं, पाप कर्म का बंध होने से वह स्वयं ही ठगाया जा रहा है।
आगे लिखते हैं, “अधिक छल करने से अधिक लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, ऐसा नहीं है क्योंकि लक्ष्मी का मिलना अथवा नहीं मिलना तो पुण्य-पाप के उदय से होता है।”
“छल करने वाला कर्म को न देखते हुए वैसे ही पाप का बन्ध करता रहता है, जैसे बिल्ली पीछे से पड़ने वाली मार की तरफ ध्यान न देते हुए दूध पीती रहती है।”
[यहाँ विशेष यह समझना कि सामने वाले का ठगाया जाना अथवा नहीं ठगाया जाना, उसके कर्मोदय अनुसार होता है। तथा ठगी करने वाले को अपने परिणामों के अनुसार पाप-बंध होता है]
इस प्रकार, माया/छल-कपट/ठगी का भाव छोड़कर उत्तम आर्जव धर्म को धारण करना योग्य है।

उत्तम शौच धर्म

(सोरठा)
धरि हिरदै संतोष, करहु तपस्या देह सों।
शौच सदा निरदोष, धरम बड़ो संसार में।।

(चौपाई)
उत्तम शौच सर्व-जग जाना, लोभ पाप को बाप बखाना।
आशा-पास महादु:खदानी, सुख पावे संतोषी प्रानी।।

(गीतिका)
प्रानी सदा शुचि शील-जप-तप, ज्ञान-ध्यान प्रभाव तें।
नित गंग जमुन समुद्र न्हाये, अशुचि-दोष स्वभाव तें।।
ऊपर अमल मल-भर्यो भीतर, कौन विधि घट शुचि कहे।
बहु देह मैली सुगुन-थैली, शौच-गुन साधु लहे।।

अर्थ:
कविवर लिखते हैं, कि “जीव के ह्रदय अर्थात अंतर के परिणामों में संतोष होना चाहिए तथा देह (शरीर) से उसे सदैव तपस्या करनी चाहिए। तथा शौच धर्म का पालन करने वाला सदैव निर्दोष होता है, इसलिये उसे सबसे बड़ा धर्म कहा गया है।”
[यहाँ अंतिम दो पंक्तियों से पंडित जी यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि, “लोक के समस्त पाप लोभ के वशीभूत होकर होते हैं। लोभी जीव वस्तु की प्राप्ति के लिए हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, यदि वस्तु मिल जाती है तो कुशील के भाव कर हर्ष मनाता है तथा परिग्रह को जोड़ने में ही निरन्तर समय व्यतीत करता रहता है। इस प्रकार, समस्त पापों के पीछे लोभ ही मुख्य कारण है।”
तथा, “जब लोभ का नाश हो जाता है तब जीव स्वतः ही निर्दोष हो जाता है।”]
आगे पंडित जी लिखते हैं, “उत्तम शौच धर्म सर्व जगत में प्रसिद्ध है, तथा ‘लोभ पाप का बाप है’, यह कथन भी लोक में विख्यात है। कहते हैं, आशा रूपी जो पाश (बन्धन/रस्सी) है, वह महा दुख को देने वाली है तथा संतोषी प्राणी ही सुख प्राप्त करता है।”
आगे लिखते हुए पंडित जी फरमाते हैं, “प्राणी अर्थात जीव शील, जप-तप, ज्ञान-ध्यान के भावों से ही शुचि अर्थात स्वच्छ होता है। नित्य गंगा-यमुना अथवा समुन्द्रों के पूरे जल से भी यदि इस देह (शरीर) को स्वच्छ करने का प्रयास करोगे, तो भी यह स्वच्छ होने वाली नहीं है।
यह ठीक उसी प्रकार है, जैसे कोई घड़ा ऊपर से तो अमल (स्वच्छ) हो तथा अंदर से उसमें मल भरा हुआ हो तो कौन उसे स्वच्छ कहेगा?; वैसे ही, यह देह भी ऊपर से तो सुंदर दिखाई देती है परंतु अंदर झांकने पर इसके समान अस्वच्छ वस्तु कोई नहीं है।”
“इसलिए ज्ञानीजन इस मैली देह के राग को छोड़कर अनंत गुणों की पोटली जो भगवान आत्मा तथा उत्तम शौच धर्म है, उसे धारण करते हैं।”
इस प्रकार, पंडित जी ने ‘गागर में सागर’ के समान इन पंक्तियों में भावों को भरा है। तथा इन्हें पढ़कर के हमें भी “उत्तम शौच धर्म” को धारण करना चाहिए।

उत्तम सत्य धर्म

(सोरठा)
कठिन-वचन मत बोल, पर-निंदा अरु झूठ तज।
साँच जवाहर खोल, सतवादी जग में सुखी।।

(चौपाई)
उत्तम-सत्य-वरत पालीजे, पर-विश्वासघात नहिं कीजे।
साँचे-झूठे मानुष देखो, आपन-पूत स्वपास न पेखो।।

(गीतिका)
पेखो तिहायत पु़रुष साँचे, को दरब सब दीजिए।
मुनिराज-श्रावक की प्रतिष्ठा, साँच-गुण लख लीजिये।।
ऊँचे सिंहासन बैठि वसु-नृप, धरम का भूपति भया।
वच-झूठ-सेती नरक पहुँचा, सुरग में नारद गया।।

अर्थ:
पंडित जी लिखते हैं, कठिन वचन (कठोर/कर्कश) वचन नहीं बोलना चाहिए। पराई निंदा (बुराई) तथा झूठ, इन दोनों का भी सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। और सत्य वचन, हित-मित-प्रिय वचन को ही बोलना चाहिए क्योंकि जग में भी सत्यवादी जीव ही सुखी दिखाई देते हैं।
आगे पंडित जी लिखते हैं, “उत्तम सत्य व्रत का पालन करना चाहिए तथा पर (दूसरे) के साथ विश्वासघात नहीं करना चाहिये। स्वयं झूठ बोलने वाला अपने पुत्र पर भी विश्वास नहीं करता।”
[इन पंक्तियों से ऐसा भी तात्पर्य निकलता है, कि “अब तक हम दूसरे मनुष्यों में ही सच्चे-झूठे करते रहे, लेकिन अपने सत्य स्वरूप आत्मा को नहीं पहिचाना।”]
आगे लिखते हुए पंडित जी कहते हैं, कि “सच्चे पुरुष को सभी लोग विश्वास कर के द्रव्य (उधार आदि) दे देते हैं तथा मुनिराज और श्रावक की प्रतिष्ठा भी सत्य धर्म से ही होती है।”
फिर, “ऊंचे सिंहासन पर बैठकर राजा वसु सत्य धर्म का पालन नहीं करने से नरक गए तथा नारद, उसके मित्र व सत्य वचन बोलने वाले स्वर्ग गए।”
[पर्वत, नारद और वसु एक ही गुरु के शिष्य थे। पर्वत गुरु का पुत्र था, तथा गुरु के दीक्षा लेने के पश्चात गुरु बना। वसु, राजा का पुत्र होने से राजा बना तथा नारद आजीविका हेतु अन्य क्षेत्र में गमन कर गया।
एक बार, नारद पर्वत की पाठशाला के पास से गुज़र रहा था, जहाँ उसने पर्वत को ‘अजैर्यष्टव्यम’ सूत्र का अर्थ- ‘अज’ अर्थात बकरे से यज्ञ करना चाहिए, करते हुए सुना। जबकि वहाँ ‘अज’ का अर्थ ‘सूखे चावल’ था।
यह बात बताने पर अहंकारी पर्वत नहीं माना और वसु जो कि दोनों का सहपाठी और अब राजा था, उसके पास न्याय के लिए चलने का प्रस्ताव रखा; जिसके लिए नारद तैयार हो गया।
अपने पुत्र के मान की रक्षा हेतु पर्वत की माँ, राजा वसु से गुरु-दक्षिणा के रूप में अपने पुत्र की बात को सत्य ठहराने का वचन ले आयी।
अगले दिन जब नारद ने वसु से ‘अज’ का अर्थ पूछा, तो वचन के अनुसार उसने पर्वत के कथन को सत्य ठहराया।
इतना कहने की ही देर थी, कि राजा वसु जो कि स्फटिक मणि के सिंहासन पर बैठने के कारण अधर में बैठा हुआ भासित होता था, सिंहासन सहित जमीन में धंस गया तथा मृत्यु को प्राप्त हो नरक चला गया।]
इस प्रकार, यह उदाहरण असत्य का फल तथा सत्य की महिमा बता कर, उत्तम सत्य धर्म को धारण करने की प्रेरणा देता है।
और, सत्य स्वरूपी आत्मा को पहिचानकर उसमें ही लीन होना वही ‘उत्तम सत्य धर्म’ की यथार्थ प्रगटता है।

उत्तम संयम धर्म

(सोरठा)
काय-छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्री-मन वश करो।
संयम-रतन संभाल, विषय-चोर बहु फिरत हैं।।

(चौपाई)
उत्तम संजम गहु मन मेरे, भव-भव के भाजें अघ तेरे।
सुरग-नरक-पशुगति में नाहीं, आलस-हरन करन सुख ठाहीं।।

(गीतिका)
ठाहीं पृथी जल आग मारुत, रूख त्रस करुना धरो।
सपरसन रसना घ्रान नैना, कान मन सब वश करो।।
जिस बिना नहिं जिनराज सीझे, तू रुल्यो जग-कीच में।
इक घरी मत विसरो करो नित, आव जम-मुख बीच में।।

अर्थ:
पंडित जी लिखते हैं, “छः काय (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा त्रस {दोइन्द्रीय, तीनिन्द्रीय, चारिन्द्रीय, पंचेन्द्रिय}) के जीवों की रक्षा करना चाहिए तथा पंचेन्द्रिय और मन को वश (काबू) में करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।”
“इस प्रकार, अपने संयम धर्म की रक्षा करना चाहिए क्योंकि इस जग में हमारे उपयोग (ध्यान, attention) लूटने के लिये कई विषय रूपी चोर घूम रहे हैं।”
[ऐसा कह कर पंडित जी यह स्पष्ट कर रहे हैं, कि अपने आत्मा को छोड़कर दूसरे विषयों/वस्तुओं के जानने के भाव हेय अर्थात छोड़ने योग्य हैं। क्योंकि जब यह जीव दूसरी वस्तुओं को जानने जाता है, तो वहाँ अपनापन/परायापन स्थापित कर के राग-द्वेष करता है, और पश्चात दुखी होता है।
तो, दुख से बचने का उपाय, तथा सुख प्रगट करने का उपाय, परद्रव्यों (दूसरी वस्तुओं) की ओर से उपयोग हटाकर अपने में लाना है। इसके लिए इन पांच इंद्रियों के विषयों से चित्त/मन/उपयोग/attention को हटाने का सुझाव दिया है।]
आगे पंडित जी लिखते हैं, “अरे मेरे मन! अब तो उत्तम संयम को धारण कर, जिससे तेरे भव-भव में बंधे गए पापों का/कर्मों का अभाव हो जाएगा।”
“कैसा है वह संयम?, कि न तो स्वर्ग गति में है, न ही नरक गति में है और न ही तिर्यंच (पशु) गति में है।”
तथा, “आलस को हरने अर्थात नाश करने वाला तथा सुख में स्थापित करने वाला (सुख दिलाने/प्रगट करने वाला) है।”
और फरमाते हुए पंडित जी लिखते हैं, “स्थावर अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति काय/कायिक जीवों की तथा त्रस अर्थात द्वीन्द्रीय, त्रीन्द्रीय, चतुरेन्द्रीय एवं पंचेन्द्रिय जीवों की रक्षा करने का भाव प्राणी संयम कहलाता है तथा पंचेन्द्रिय अर्थात स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण एवं मन के विषयों से अपने उपयोग (ध्यान/मन) को हटाकर आत्मा में स्थिर करना वह इन्द्रिय संयम कहलाता है।”
“यह संयम इतना महत्त्वपूर्ण है कि इसके बिना जिनराज अर्थात तीर्थंकर आदि भी इस संसार से पार नहीं होते और जिसके बिना यह जीव जगत-रूपी कीचड़ में पड़ा रहता है, भ्रमता/रुलता रहता है, ऐसे संयम को आयु रूपी यमराज के मुँह में जाने से पहले ही, बिना एक घड़ी/क्षण गँवाए प्रगट करना चाहिए, उसका पालन करना चाहिए।”
इस प्रकार, संयम वह ‘दुख’ का नहीं ‘सुख’ का मार्ग है, यह पंडित जी इन पंक्तियों के द्वारा समझाते हैं।
तथा समझाते हैं, कि मात्र बाहर शरीर से उपवास कर लेना, भगवान की पूजा-भक्ति कर लेना अथवा दानादि दे देना, वह मात्र धर्म नहीं है। वह धर्म तो आत्मा का स्वभाव है, तो उसका आश्रय लेने से ही प्रगट होगा।
तथा ये उपवासादि क्रियाएँ उस आत्मा तक पहुंचाने के लिए ही हैं, कि शरीर, धन, परिवार से मोह हटाकर उसकी ओर अपना उपयोग ले जायें और सुख का अनुभव करें। मात्र क्रियाओं के कर लेने से धर्म होता तो अजीव वस्तुओं को भी धर्म होता क्योंकि वो तो निरन्तर ही उपवास करती हैं।
तथा, इन क्रियाओं को करने पर भी कई जीव दुखी देखे जाते हैं; जबकि, धर्म तो सुख का कारण है।
अतः, क्रियाओं से दृष्टि हटाकर, आत्मा के पास दृष्टि का आना ही वास्तविक ‘उत्तम संयम धर्म’ है और वही प्रगट करने योग्य है।

उत्तम तप धर्म

(सोरठा)
तप चाहें सुरराय, करम-शिखर को वज्र है।
द्वादश विधि सुखदाय, क्यों न करे निज सकति सम।।

(चौपाई)
उत्तम तप सब-माँहिं बखाना, करम-शैल को वज्र-समाना।
बस्यो अनादि-निगोद-मँझारा, भू-विकलत्रय-पशु-तन धारा।।

(हरिगीतिका)
धारा मनुष्-तन महा-दुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता।
श्री जैनवानी तत्त्वज्ञानी, भर्इ विषय-पयोगता।।
अति महादुरलभ त्याग विषय, कषाय जो तप आदरें।
नर-भव अनूपम कनक-घर पर, मणिमयी-कलसा धरें।।

अर्थ:
तप की महिमा इतनी है, “कि सुरराज (इंद्र) भी इसको करने के लिए लालायित रहते हैं क्योंकि यह कर्म-रूपी शिखर (पर्वत) को तोड़ने के लिए वज्र के समान है।”
“यह 12 प्रकार के भेदों वाला है, तो अपनी शक्ति के अनुसार क्यों नहीं किया जा सकता?, अर्थात अवश्य किया जाना चाहिए।”
[सर्वप्रथम, तप के दो भेद किये, अभ्यन्तर/अंतरंग तप और बाह्य/बहिरंग तप।
अभ्यन्तर/अंतरंग तप के 6 भेद हैं : प्रायश्चित, विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान
बाह्य/बहिरंग तप के 6 भेद हैं :
अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति-परिसंख्यान, रस-परित्याग, विविक्त-शैय्यासन, काय-क्लेश]
आगे पंडित जी लिखते हैं, “उत्तम तप का बखान सारे ग्रंथों में किया गया है, क्योंकि यह कर्म-रूपी पत्थर को तोड़ने के लिए वज्र के समान है। अनादि काल से यह जीव (मैं) निगोद में रहा, एकेन्द्रियादि विकलत्रय पर्यायों (1,2,3,4 इन्द्रिय अवस्थाओं) में रहा, पशु पर्याय में बहुत काल तक रहने के बाद अब महादुर्लभ यह मनुष्य पर्याय मिली है।
आगे पंडित जी इसी में लिखते हैं कि, “इस मनुष्य पर्याय को पाकर तप करना ही योग्य है। अभी सर्व प्रकार से अनुकूलता मिल गयी है- उत्तम कुल, उत्तम आयु तथा निरोग शरीर की प्राप्ति हुई है। और साथ ही जिनवाणी का समागम मिला, तत्त्वज्ञान मिला तथा उसे समझने हेतु उपयोग (ज्ञान/बुद्धि) मिला।”
“ये सब साधन मिलने के बाद जो जीव विषय-कषाय को त्यागकर, दुर्लभ तप को धारण करते हैं, वे इस सोने के घर के समान मनुष्य-भव पर तप-रूपी मणियों से बने कलश की स्थापना करते हैं।”
इस प्रकार, उत्तम तप धर्म का स्वरूप पंडित जी ने स्पष्ट करते हुए यह प्रेरणा दी, कि यह जन्म मौज-मस्ती आदि के लिए नहीं, जन्म-जन्म के दुखों से मुक्ति की प्राप्ति की तैयारी करने के लिए मिला है। यदि इसे यूँ ही गँवा दिया, तो फिर से इसकी प्राप्ति कठिन है और फिर अनंत काल के लिए संसार में रुलना पड़ेगा। अतः शीघ्र ही ‘उत्तम तप धर्म’ धारण करने योग्य है।
साथ ही, यह भी बताया कि मात्र बाह्य तप को धारण करने से धर्म नहीं हो जाता। जब तक अंतरंग तप प्रगट नहीं होते, तब तक बहिरंग तप भी तप नाम नहीं पाते। वे तो फिर ‘बाल तप’ (बच्चों के द्वारा, देखा-देखी में किया जाने वाला तप) नाम पाते हैं। इसलिए, पहले अंतरंग तप प्रगट करने का पुरुषार्थ करो। बाह्य तप करने के पीछे अंतरंग तप की प्रगटता का उद्देश्य बनाओ।

उत्तम त्याग धर्म

(सोरठा)
दान चार परकार, चार संघ को दीजिए।
धन बिजुली उनहार, नर-भव लाहो लीजिए।।

(चौपाई)
उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषध शास्त्र अभय आहारा।
निहचै राग-द्वेष निरवारे, ज्ञाता दोनों दान संभारे।।

(हरिगीतिका)
दोनों संभारे कूपजल-सम, दरब घर में परिनया।
निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय-खोया बह गया।।
धनि साधु शास्त्र अभय-दिवैया, त्याग राग-विरोध को।
बिन दान श्रावक-साधु दोनों, लहें नाहीं बोध को।।

अर्थ:
पंडित जी कहते हैं, “दान चार प्रकार का होता है (आहार दान, औषधि दान, अभय दान और ज्ञान दान) तथा वह चार प्रकार के संघ (मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका के समूह) को देना चाहिए। क्योंकि धन तो बिजली की चमक के समान नाशवान है अतः मनुष्य भव में इसका दान दे कर लाभ ले लेना चाहिए।”
आगे पंडित जी लिखते हैं, ” उत्तम त्याग की महिमा जगत में विख्यात है। निश्चय नय की अपेक्षा राग-द्वेष का त्याग, तथा व्यवहार नय की अपेक्षा यह 4 प्रकार का (आहार दान, औषधि दान, अभय दान और ज्ञान दान) कहा गया है। तथा ज्ञानी जीव दोनों प्रकार के दानों को करता है।”
आगे पंडित जी लिखते हैं, “जिस प्रकार, कुँए का जल यदि प्रयोग में नहीं आये, तो सड़ जाता है; उसी प्रकार, यदि घर में धन इकट्ठा हो जाए और उसे श्रेष्ठ कार्य में नहीं लगाया जाए तो वह नष्ट हो जाता है।”
“या तो वह परिवार पर खर्च हो जाता है, या तो चोर चुरा ले जाते हैं अथवा बह जाता है अर्थात व्यर्थ ही नष्ट हो जाता है।”
तथा, कुँए में से जितना जल निकालते हैं, वह उतना ही बढ़ता है। वैसे ही, धनादि का जितना दान करते हैं, वह उतने ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं।”
“वे साधु धन्य हैं जो शास्त्र (ज्ञान) दान और अभय दान देने वाले हैं , और राग – विरोध (द्वेष) के त्यागी हैं।”
“इस दान की महिमा इतनी है कि इसके बिना श्रावक और साधु दोनों ही बोधि (सम्यग्ज्ञान) को प्राप्त नहीं कर पाते।”
[एक अपेक्षा से, दान का कथन श्रावकों की मुख्यता से तथा त्याग का कथन मुनिराजों की मुख्यता से किया गया है।
तथा, दान के लिए पात्र (उत्तम पात्र: मुनिराज; मध्यम पात्र: पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक; जघन्य पात्र: अविरत सम्यग्दृष्टि) की आवश्यकता होती है एवं उत्तम वस्तु का ही दान दिया जाता है।
परंतु, दोनों अवस्थाओं में दोनों ही मुख्य हैं: श्रावक जब तक पर वस्तुओं में अपनेपन का त्याग नहीं करेंगे तब तक उन्हें सम्यग्दर्शन नहीं होगा और साधु जब तक ‘स्वयं में लीनता-रूप’ स्वयं को चारित्र का दान नहीं करेंगे तब तक वह वास्तविक साधु नहीं कहलाएँगे।]
इस प्रकार, त्याग और दान में मात्र नाम का ही अंतर समझना। जब पर-वस्तु में अपनेपन का त्याग होता है, तब स्वयं को सच्चे सुख का दान होता है। और दोनों ही राग-द्वेष के अभाव (नाश) पूर्वक होते हैं।
जब तक राग नहीं छूटेगा तब तक किसी वस्तु का दान नहीं हो पाएगा, और जब तक राग-द्वेष को अपना अहित करने वाला नहीं समझेंगे, तब तक उनका त्याग नहीं कर पायेंगे। अतः, दोनों का स्वरूप समझ कर दोनों को अपने जीवन में प्रगट करना चाहिए।

उत्तम आकिंचन्य धर्म

(सोरठा)
परिग्रह चौबीस भेद, त्याग करें मुनिराज जी।
तिसना भाव उछेद, घटती जान घटाइए।।

(चौपाई)
उत्तम आकिंचन गुण जानो, परिग्रह-चिंता दु:ख ही मानो।
फाँस तनक-सी तन में साले, चाह लंगोटी की दु:ख भाले।।

(हरिगीतिका)
भाले न समता सुख कभी नर, बिना मुनि-मुद्रा धरे।
धनि नगन पर तन-नगन ठाढ़े, सुर-असुर पायनि परें।।
घर-माँहिं तिसना जो घटावे, रुचि नहीं संसार-सों।
बहु-धन बुरा हू भला कहिये, लीन पर उपगार सों।।

अर्थ:
“24 प्रकार के परिग्रहों (14 अंतरंग परिग्रह: मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुष-वेद, स्त्री-वेद, नपुंसक-वेद ; 10 बहिरंग परिग्रह: क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, सोना, चांदी, दास, दासी, वस्त्र, बर्तन) का त्याग मुनिराज करते हैं तथा श्रावकों को भी तृष्णा का भाव कम करते-करते इसे अधिकाधिक सीमित करना चाहिए।”
आगे लिखते हुए पंडित जी कहते हैं, “उत्तम आकिंचन्य को धारण करने का भाव आना एक गुण है।”
“परिग्रह एवं उसके साथ होने वाली चिंता दुख का ही कारण है। जिस प्रकार, एक छोटी-सी फ़ांस भी बहुत दुख का कारण बन जाती है; उसी प्रकार, एक लंगोटी मात्र की इच्छा भी बहुत दुखी करती है।”
फिर कहते हैं, “बिना मुनि हुए जीव कभी भी पूर्ण समता और सुख को प्राप्त नहीं कर सकता। धन्य हैं वे मुनिराज जो सर्व परिग्रह का त्याग कर के नग्न मुद्रा को धारण करते हैं एवं चक्रवर्ती व देवादिक भी जिन्हें नमस्कार करते हैं।”
“जो जीव घर में रहकर भी तृष्णा को यथायोग्य घटाते हैं, जिनकी रुचि अब किंचित भी संसार में नहीं रह गयी है, परंतु चारित्र की कमजोरी के कारण अभी पूरे परिग्रह का त्याग नहीं कर पा रहे हैं, उनके परिग्रह/धन को भी कदाच भला कह देते हैं, यदि वह दूसरों के उपकार में लगाया जा रहा हो।”
[यहाँ यह बात विशेष समझना, कि मात्र परिग्रह का बाहर में त्याग करने से उत्तम आकिंचन्य धर्म नहीं हो जाता। ‘परिग्रह मुझ आत्मा की सीमा में है ही नहीं, कभी आया ही नहीं तथा कभी आएगा ही नहीं’, यह समझकर उसके प्रति ममत्व को घटाना तथा फिर बाहर में छोड़ने पर ही ‘उत्तम आकिंचन्य धर्म’ प्रगट होता है।
प्र. कोई यह कहे, कि “हमारे अंदर परिग्रह के प्रति ममत्व तो कम हो गया है”, परन्तु फिर भी परिग्रह रखे, तो ऐसा सम्भव नहीं है। क्योंकि ‘ज़हर पीने से मरते हैं’,- ऐसा समझ में आने पर उसका त्याग होता ही होता है।
ठीक उसी प्रकार, परिग्रह दुख का निमित्त कारण लगने पर, उसका भी यथायोग्य त्याग होता ही होता है।
तथा जब परिग्रह में ममत्व भाव टूटता है, तब अपने अनन्त गुणों के निधान भगवान आत्मा से एकत्व जुड़ता है और अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति होती है।]
इस प्रकार, पर (दूसरे द्रव्यों) में ‘मेरे’पने का भाव हटाना और बाहर पर का यथायोग्य त्याग होना ही उत्तम आकिंचन्य धर्म प्रगट करने का उपाय है।

उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म

(सोरठा)
शील-बाड़ नौ राख, ब्रह्म-भाव अंतर लखो।
करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नर-भव सदा।।

(चौपाई)
उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनो, माता-बहिन-सुता पहिचानो।
सहें बान- वरषा बहु सूरे, टिकें न नैन-बान लखि कूरे।।

(हरिगीतिका)
कूरे तिया के अशुचि तन में, काम-रोगी रति करें।
बहु मृतक सड़हिं मसान-माँहीं, काग ज्यों चोंचैं भरें।।
संसार में विष-बेल नारी, तजि गये जोगीश्वरा।
‘द्यानत’ धरम दस पैंडि चढ़ि के, शिव-महल में पग धरा।।

अर्थ:
पंडित जी कहते हैं, “शील की रक्षा के लिए, नौ बाढ़ों का पालन करना चाहिए तथा अपना ब्रह्म स्वरूप अंतरंग में देखना चाहिए। तथा इनकी वृद्धि की भावना नित्य भानी चाहिए क्योंकि इससे ही यह मनुष्य भव सफल होगा।”
आगे लिखते हैं, “उत्तम ब्रह्मचर्य को सभी जीव अपने अंतरंग में धारण करें। जो भी आयु में अपने से बड़ी स्त्रियाँ हैं, उन्हें माता के समान; अपने समान आयु की स्त्रियों को बहिन के समान तथा अपने से छोटी स्त्रियों को बेटी के समान देखना चाहिए।”
तथा ब्रह्मचर्य का पालन कितना कठिन है, यह बताते हुए पंडित जी लिखते हैं, कि “यह जीव युद्ध क्षेत्र में तो बाणों की वर्षा को सहन कर लेता है परंतु स्त्रियों के नैनों से होने वाली क्रूर बाण वर्षा को सहन नहीं कर पाता।”
आगे लिखते हैं, “ऐसा यह जीव इस अपवित्र शरीर में उसी प्रकार काम के वश होकर राग करता है, उसमें मग्न होता है, जिस प्रकार शमशान घाट में मृत शरीरों को कौए नोंच-नोंच कर खाते हैं।”
फिर कहते हैं, “संसार में नारी के प्रति होने वाला राग विष (जहर) की बेल के समान है, जिसका त्याग तीर्थंकर मुनिराज जैसे महापुरुष भी करते हैं। तथा ऐसे उत्तम ब्रह्मचर्य को धारण कर के द्यानतराय जी शिव (मुक्ति) महल में प्रवेश करने की भावना भाते हैं।”
इस प्रकार, उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म का स्वरूप समझकर निश्चय ब्रह्मचर्य को प्रगट करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि तभी बाहर से होने वाला ब्रह्मचर्य व्यवहार नाम पाता है।
और इसके लिए व्यवहारिक ब्रह्मचर्य तो होना ही चाहिए। उसके हुए बिना निश्चय ब्रह्मचर्य प्रगट नहीं होता।
जिस प्रकार, ‘राजा का महल’ कहलाने के लिए, राजा का उस महल में रहना जरूरी है। परन्तु राजा भी उसी महल में आकर रहेगा जो उसके योग्य बना होगा। परंतु बिना राजा के आये वह महल ‘राजा का महल’ नाम नहीं पाएगा।
उसी प्रकार, निश्चय ब्रह्मचर्य वहीं प्रगट होगा, जहाँ पहले से व्यवहारिक ब्रह्मचर्य का पालन होता होगा। तथा वह व्यवहार ब्रह्मचर्य नाम, निश्चय ब्रह्मचर्य प्रगट होने के बाद ही पाएगा, बिना उसके नहीं।
इस प्रकार, ब्रह्मचर्य का स्वरूप समझ कर, ब्रह्म स्वरूप आत्मा में लीन होना ही दसलक्षण पर्व की सार्थकता है।

Credits: @Sarvarth.Jain

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बहुत अच्छा सुलभ अर्थ आपने पूजन का किया है | अनेकों इससे लाभान्वित होंगे | :ok_hand::clap:
इस पंक्ति का थोडा अर्थ शेष है
“धनि नगन पर तन-नगन ठाढ़े”
धनि = धन्य है कि
नगन पर = पर्वतों पर
तन-नगन = तन से नग्न (अकिंचन)
ठाढ़े = खड़े हैं,
… जिनकी सुर असुर पैर पढ़ते हैं|

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