दर्शन स्तुति
भटक-भटक भव की गलियों में, दुख ही दुख मैंने पाया।
पा करके कुछ बाह्य वस्तुएँ, निकट नहीं तेरे आया ।।१।।
कोटि-कोटि सत्कृत्यों से ही, आ पहुँचा जिन मन्दिर में।
देख-देख प्रतिमा प्रभु तेरी, हर्ष उमड़ता अन्दर में ।। २ ।।
आँखों का मिल गया मुझे फल, शान्तमूर्ति दर्शन करके।
रहूँ आपके चरणों में ही, काम-काज तज कर घर के।।३।।
दीर्घ भ्रमण की लम्बी-चौड़ी, मेरी दुखद कहानी है।
त्रिभुवन नाथ जिनेश्वर तुमसे, नहीं कभी वह छानी है।।४।।
यूँ तो मैं अनादि से दुखिया, पर अब दुख विसराया है।
मानव भव में मिली तुम्हारे, पद-पंकज की छाया है।।५।।
तेरे दर्शन के प्रभाव से, मोह-ग्रन्थि सारी छूटी।
और मानसिक ममता साँकल, क्षण-भर में मेरी टूटी।। ६ ।।
वीतराग प्रभु के दर्शन से, पर-परिणति सत्वर भागी।
सम्प्रति कोई अहो अपरिमित, परम शान्ति मन में जागी।।७।।
तुच्छ इन्द्र चक्री वैभव को, प्रभु तुम दर्शन के आगे।
अस्थिर जल बुद-बुद सम धन को, कौन मुमुक्ष अब माँगे? ।।८ ।।
सफल उसी का है नर जीवन, जो तुमको अपनाता है।
वीतराग सर्वज्ञ हितैषी, तू ही जग का त्राता है।। ९ ।।
दिव्य आपके स्वच्छ ज्ञान में, लोकालोक झलकता है।
निजस्वरूप में रहे लीन अति, तू न उसे अपनाता है।।१०।।
बिन आयुध ही देव आपने, महामोह क्षण में मारा।
त्रिभुवन विजयी कामदेव भी, नाथ आप से ही हारा ।।११।।
यद्यपि राग-द्वेष इस जग में, नहीं किसी से तुम करते।
निंदक जन पाते दुख अतिशय, भव्य भक्ति द्वारा तिरते ।। १२ ।।
Artist: Ravindra ji Aatman