छोड़ा सब जग का क्लेश, धारा यतियों का वेष,
दिगम्बर मुनि चले,
धिक्-धिक् स्वारथ संसार, उमड़ी उपशम रस की धार,
दिगम्बर मुनि चले…॥ टेक॥
वैराग्य हुआ जिस क्षण, निज ज्ञायक प्रिय लागा।
अन्तर पौरुष जागा, महलों का सुख त्यागा।
ग्रन्थियाँ टूटते ही, निर्ग्रन्थ दशा प्रगटी। दिगम्बर मुनि चले… ॥१॥
उपसर्ग परीषह में, समता का भाव धरें।
सुमनों की वर्षा हो, या जलते अंगारे।।
समिति गुप्ति चारित्र, निर्दोष सहज पालें। दिगम्बर मुनि चले… ॥२॥
आनन्द आत्मा का, अन्तर्मुख हो पाते।
वे मुनिवर सिद्धों के, लघुनन्दन कहलाते ।
धर्मामृत वर्षा से, भवि जीव मुक्ति पाते। दिगम्बर मुनि चले… ॥३॥