जिन्हें मोह भी जीत न पाये, वे परिणति को पावन करते।
प्रिय के प्रिय भी प्रिय होते हैं, हम उनका अभिनन्दन करते ।।
जिस मंगल अभिराम भवन में, शाश्वत सुख का अनुभव होता।
वन्दन उस चैतन्यराज को, जो भव-भव के दुःख हर लेता ।।१।।
जिसके अनुशासन में रहकर, परिणति अपने प्रिय को वरती।।
जिसे समर्पित होकर शाश्वत ध्रुव सत्ता का अनुभव करती।।।
जिसकी दिव्य ज्योति में चिर संचित अज्ञान-तिमिर घुल जाता।
वन्दन उस चैतन्यराज को, जो भव-भव के दुःख हर लेता ।।२।।
जिस चैतन्य महा हिमगिरि से परिणति के घन टकराते हैं।
शुद्ध अतीन्द्रिय आनन्द रस की, मूसलधारा बरसाते हैं ।।
जो अपने आश्रित परिणति को, रत्नत्रय की निधियाँ देता।
वन्दन उस चैतन्यराज को, जो भव-भव के दुःख हर लेता ।।३।।
जिसका चिन्तनमात्र असंख्य प्रदेशों को रोमांचित करता।
मोह उदयवश जड़वत् परिणति में अद्भुत चेतन रस भरता।।
जिसकी ध्यान अग्नि में चिर संचित कर्मों का कल्मष जलता।
वन्दन उस चैतन्यराज को, जो भव-भव के दुःख हर लेता ।।४।।
Singer: @divya