बुधजनदास जी कवि | Budhjandaas ji Kavi

बुधजन जी का जन्म जयपुर में ही कहीं हुआ था। इनका जन्म सांगानेर या आमेर में हुआ था निश्चित रूप से पता नहीं चलता है। इनके वास्तविक जन्म की तिथि और मृत्यु की तिथि नहीं मिलती है। महावीर ग्रंथ एकेडमी है उसमें ,डॉ. कस्तूरचंद जी कासलीवाल, मूलचंद जी शास्त्री, इन्होंने रिसर्च करके एक ग्रंथ( किताब) लिखी है बुधजन जी पर व्यक्तित्व और कर्तृत्व किताब में भी वे वास्तविक जन्म की तिथि और मृत्यु की नहीं निकाल सके हैं। लेकिन बुधजन जी का जो समय है वो है विक्रम संवत १८२० से एक दो साल पहले उनका जन्म हुआ। यानि की जब पण्डित टोडरमलजी का देहांत हुआ है, तब बुधजन जी करीब पांच साल के बच्चे होंगे। इनका समय भी पण्डित जयचंद छाबड़ा जैसा है ये भी लगभग ८० साल जिएं होंगे। वि. सं. १८९५ तक की गारंटी है इसके बाद इनकी रचना नहीं मिलती है। इसके बाद कितने जिए ये हम कह नहीं सकते हैं। दौलतराम जी और बुधजन जी का भी लगता है बहुत प्रेम रहा होगा। बुधजन जी ने सबसे पहले छहढाला लिखी थी अपने जीवन में वो लिखी थी वि.सं. १८५९ में और ३२ साल बाद १८९१ में दौलतराम जी ने उस छहढाला से प्रभावित होकर ऐसा लगता है कि बुधजन जी ने खुद कहा होगा कि इसको और बढ़िया बनाओ। ये बुधजन जी की छहढाला देखो जब हम द्यानतराय जी की चर्चा कर रहे थे तब हमने द्यानतराय जी की छहढाला के बारे में जाना था वो तो पहला प्रयोग था और छोटी सी वो तो बारहखड़ी जैसी लिखी थी लेकिन ये बुधजन जी ने छहढाला लिखी ये रियली बहुत फैन्टास्टिक थी और बिल्कुल ऐसी की ऐसी छहढाला दौलतराम जी ने इसका अनुकरण करके हू-ब-हू छहढाला लिख दी। वैसा का वैसा मंगलाचरण लिखा दौलतराम जी ने वैसी की वैसी छहढाल हैं। एक फरक है और वही विषयवस्तु है। जो छहढाला में बारह भावना आई है वो तो पांचवीं ढाल में आई है और बुधजन जी ने पहली ढाल में बारह भावना लिखी और उन्होंने बारह भावनाओं से अपना ये टॉपिक शुरू किया और कहा कि देखो वैराग्य जगाकर के फिर उन्होंने संसार के दुःख का वर्णन किया और वही पद्धति है पूरी की पूरी वही। देखो शब्द भी वैसे ही हैं।
बुधजन जी की छहढाला की एक लाइन सुनाता हूं आपको…

कोटिन बिच्छू काटत जैसे, ऐसी भूमि तहां हैं
नरक गति के दुखों का वर्णन ।

वो ही दौलतराम जी ने लिखा:-
बिच्छू सहस डसे नहीं तिसो

मैं आपको ये बताना चाह रहा हूं कि बुधजन जी इतने महान कवि थे और इतनी बढ़िया उन्होंने छहढाला लिखी थी और वो ही चलती थी। इतने अच्छे होंगे कि उन्होंने दौलतराम जी से दूसरी छहढाला लिखवाई और फिर बाद में वो छहढाला आज इतनी प्रचलित हो गई तो वो छहढाला जिन्होंने हमको दी और फिर तीनों छहढाला का तुलनात्मक अध्ययन किया तो बहुत आनंद आया। दौलतराम जी जिन्होंने हमको दिए वो सारा उपकार भी बुधजन जी का है। बुधजन जी जयपुर में थे और वि. सं. १८२० से लेकर १८९५ तक का उनका समय है।

बुधजन जी कौन थे ?
बुधजन जी का ओरिजनल नाम विरधीचंद, वृद्धिचंद या भदीचंद जी था। जयपुर में घी वालों के रास्ते में आज भी एक भदीचंद जी का मंदिर है। वहां पर बुधजन जी पूजा-पाठ, स्वाध्याय करते थे और टोडरमल जी का जहां मंदिर है उससे १०० मीटर की दूरी पर ही है बिल्कुल पास में लगा हुआ मंदिर है मैंने बहुत बार दर्शन किए हैं। बाद में जो इन्होंने भजन लिखे थे वो बुधजन- बुधजन, इसलिए इनका नाम बुधजन पड़ गया और काव्य क्षेत्र में आपने स्वयं को ‘बुधजन’ इस नाम से संबोधित किया है। ये खण्डेलवाल जाति के थे और इनका गोत्र था बज। भदीचंद ‘बज’। बुधजन जी के जो वंशज हैं वो अभी भी जयपुर में रहते हैं। उनके एक वंशज का नाम प्रो. नवीन चंद ‘बज’ है और वो राजस्थान यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के प्रोफेसर से अभी रिटायर हुए हैं। मैंने कल परसों उनसे भी बात की। इतना ही परिचय मिलता है। मैंने उनसे भी पूछीं कुछ बातें लेकिन उन्होंने भी कहा कि ज्यादा कुछ उनके बारे में नहीं है। इनके बॉयोडाटा के बारे में आपको ज्यादा नहीं बता सकता हूं लेकिन हमारे इन कवियों ने इस बात पर ध्यान भी नहीं दिया। वो चाहते भी नहीं कि तुम मेरा बॉयोडाटा जानों वो तो ये चाहते हैं कि तुम जिनवाणी पढ़ो, जिनवाणी की आराधना करो। जिनवाणी की आराधना के लिए उन बुधजन जी ने और क्या-क्या लिखा है वो आपको सुनाता हूं। दो तरह की प्रेरणा मिलती है। एक तो खूब स्वाध्याय करनी की प्रेरणा मिलती है। इतने बढ़िया-बढ़िया ग्रंथ अनुवाद कर-कर के दे दिए। टीका कर-कर के उन्होंने दे दिए। इनसे साहित्य साधना की भी खूब प्रेरणा मिलती है। हमें ये चीजें लिखनी चाहिए। अपने लिए स्वाध्याय करना चाहिए और थोड़ा-सा हमको हमारे ऊपर पूर्वजों का जो ऋण है उसको उतारने के लिए हमें भी आगे आने वाली पीढ़ी को तत्त्वज्ञान पहुंचाने का कोई ना कोई उत्तम प्रयास करना चाहिए।‌

क्या-क्या लिखा ?

पहली पुस्तक का नाम है : छहढाला।
दूसरी पुस्तक का नाम है : बुधजन विलास।

पहले ये पद्धति चलती थी कि सब रचनाओं का संग्रह करके बनारसी विलास, दौलतविलास, वृन्दावन विलास।
विलास माने उनकी जितनी भी रचनाएं हैं छुट-पुट बिखरी हुई उनको सब जगह से एक जगह इकट्ठा कर देते थे और उनका नाम रख देते थे।

बुधजन विलास में करीब पैंतीस रचनाएं हैं।‌ एक बहुत सुंदर रचना है विचार पच्चीसी रचना है उसमें तत्त्व प्रचार की बात है। एक दर्शन पच्चीसी है। एक दर्शन स्तुति है। एक दर्शन अष्टक है। देव दर्शन पर भी बहुत सारी स्तुतियां और भजन बुधजन जी ने बनाए हैं। एक रचना का नाम है द्वादशानुप्रेक्षा बारह भावना इन्होंने लिखी है। एक रचना का नाम है सम्यक्त्व भावना ये प्राकृत का ग्रंथ है। इसका अनुवाद रइदु कवि ने ओरिजनल सम्मत्त भावणा लिखा था। रइदु कवि आज से चार सौ - पांच सौ वर्ष पहले हुए हैं। गोपाचल पर्वत के पास में ग्वालियर में हुए हैं और इन्होंने बड़ा भारी साहित्य का काम किया है। बुधजन जी ने चौबीस ठाणा रचना लिखी है। उपदेश छत्तीसी एक रचना लिखी है। इसमें छत्तीस - छत्तीस सवैय्ये लिखे हैं। वचन बत्तीसी, वाणी कैसी होनी चाहिए इस पर बत्तीस सवैये लिखे हैं। एक ज्ञान पच्चीसी लिखी है। ज्ञान का क्या स्वरूप होता है। मैं कहता हूं। दश लाख जैन ग्रंथ आज भी मौजूद हैं। एक बोध द्वादशी लिखी है। एक बहुत सुंदर रचना लिखी है नन्दीश्वर जयमाला उसमें नन्दीश्वर द्वीप का बहुत बढ़िया वर्णन है। करणानुयोग की रचना है। अकृत्रिम चैत्यालय कैस हैं? वहां के बावन चैत्यालय कैसे हैं ? और उसके अलावा इस बुधजन विलास में दो सौ ब्यालीस पद (भजन) हैं। इन कवियों ने भजन कितने लिखे हैं देखो तो सही बुधजन जी का पांच पेज का लेख पढ़ा हिन्दी साहित्य के ऊपर वो लेख मैंने पढ़ा। एक भजन है -

हमकौं कछू भय नारे, जान लियौ संसार ।
जो निगोद मैं सो ही मुझमैं, सो ही मोक्ष मँझार।।
निस्चय भेद कछू भी नाहिं भेद गिनैं संसार।।
परवस ह्वै आपा विसारिकैं, राग दोष कौं धार।
जीवत मरत अनादि काल तैं, यौं ही है उरझार।।
जाकरि जैसे जाहि समय मैं, जो होवत जा द्वार।
सो बनि है टरि है कछु नाहिं, करि लीनौं निरधार।।
अग्नि जरावै पानी बोबै, बिछुरत मिलत अपार।
सो पुद्गल रूपी मैं ‘बुधजन’, सबकौ जाननहार।।

बुधजन जी की एक-एक रचना अमृत है। भवितव्यता, वैराग्य परक भजन हैं। मुनिराज कब मिलेंगे ऐसे भजन हैं।
धरम बिना कोई नहीं अपना। ढाई सौ भजन हैं। एक हो गई छहढाला, एक हो गया बुधजन विलास।
ऐसे कवियों का उपकार मानना चाहिए। ऐसा लिखा है। संसार में हर पाप का प्रायश्चित है पर कृतघ्नता का कोई भी प्रायश्चित नहीं है।
नहि कृतघ्नमुपकारम् साधवो विस्मरन्ति।‌ गोम्मटसार में लिखा, धवला में लिखा। आप्त परीक्षा में लिखा। ज्ञानी होने की क्या पहचान है ? जो कृतज्ञ होता है, उपकारी का उपकार मानता है वो भव्य होता है। ये विशुद्धि की पहचान है। एक रचना लिखी है तत्त्वार्थ बोध , मानो तत्त्वार्थ सूत्र की टीका है। ५८२ छंद हैं। बहुत विशाल काय ग्रंथ है। योगसार भाषा लिखा है, योगसार जी योगिन्दु आचार्य का ग्रंथ है। योगसार जी के ऊपर पूरा का पूरा पद्यानुवाद किया है। बहुत प्रभावित रहे, अन्त में आपको उसकी प्रशस्ति पढ़ने लायक है। आज से दो सौ साल पहले लिख दिया। एक वहां पर दीवान अमरचंद जी के साथी थे और वहां पर जयपुर दरबार में ही ये भी सर्विस करते थे। उस समय जयसिंह जी के बेटे का बेटे का बेटा जयसिंह तृतीय। जयसिंह तृतीय का राज्य था। उस जयसिंह तृतीय के जमाने में दीवान अमरचंद जी थे और दीवान अमरचंद जी इनके साथी थे और उनके कहने से इन्होंने पंचास्तिकाय भाषा लिखी और बहुत बढ़िया पूरे पंचास्तिकाय का भाषा माने पद्यानुवाद लिखा। पद्यानुवाद में भी बीच- बीच में भावों को खोलने के लिए अपनी तरफ से अतिरिक्त भी लिखे हैं। पंचास्तिकाय में जितनी गाथाएं हैं उतने ही छंद नहीं हैं। दश बीस पच्चीस अतिरिक्त हैं। उस विषय का खुलासा करने के लिए बहुत बढ़िया ग्रंथ इन्होंने लिखा। एक रचना का नाम है बुधजन सतसई, बुधजन कवि की एक सबसे फेमस रचना है बुधजन सतसई। सतसई की परम्परा चलती थी विद्वानों में बहुत विद्वानों ने सतसई लिखी है और सतसई का मतलब होता है सात सौ दोहे। सत माने सात, सई माने सौ। दोहे ही लिखे जाते हैं कुछ और नहीं लिखा जाता, सतसई की ये शर्त है कि दोहा ही होना चाहिए। कोई भी सात सौ छंदों का नाम सतसई नहीं होता है। क्यों नहीं होता है। क्योंकि सतसई में सबसे छोटा छंद लिया जाता है। छंदों में सबसे छोटा छंद माना है दोहा और सारे छंद बड़े-बड़े हैं और क्यों लिखी जाती है ?
सतसई के बारे में ये प्रसिद्ध है :

सतसईया के दोहरे, ज्यों नाभिक के तीर।
देखन में छोटे लगे, भाव करें गंभीर।।

इनमें गागर में सागर भरा जाता है। कोई कवि बहुत टोप का होगा ना तो सतसई लिख सकता है। सतसई हर कोई नहीं लिख सकता। सतसई वो लिखेगा, एक दोहे में एक शास्त्र भरना पड़ता है। हर दोहे पर एक-एक शास्त्र बन सकता है। ऐसी ये बुधजन सतसई है और आपको जानकर ताज्जुब होगा ये जब सतसई लिखी गई है तब उसी दरबार में थोड़े दिन पहले बिहारी ने सतसई लिखी थी। बिहारी की सतसई दुनियां में फेमस है और उस सतसई में क्या था ? वो सतसई, बिहारी ने जो सतसई लिखी थी, आपको बिहारी की सतसई नहीं पता होगी ना तो आपको बुधजन की सतसई की महिमा नहीं आएगी। बिहारी की सतसई की क्या खास बात है? वो राजा एक-एक दोहे पर अशर्फी, दीनार उसको भेंट में देता था बिहारी को। बिहारी एक दोहा लिखता था और वो दोहा क्या होता था? श्रृंगार का, विलास का वो जो राजा था वो अपनी रानी में बहुत आशक्त था, बहुत डूबा हुआ था विषय भोगों में तो उसे वो ही राग रंग में और लगाने के लिए श्रृंगार का, कामभाव का वर्णन करने के लिए बहुत बढ़िया-बढ़िया दोहे वो बिहारी बनाकर लाते थे और उनपर वो खुश होकर के राजा एक अशर्फी देता था और ऐसे करके वो सात सौ दोहे फेमस हो गए पर साहित्य की दृष्टि से वो बहुत उच्च कोटि के लिखे गए हैं उनकी विषयवस्तु तो मैंने आपको बताई श्रृंगार है लेकिन उनकी भाषा शैली बहुत गजब की है इसलिए साहित्य में बहुत फेमस हैं लेकिन ये जो बुधजन सतसई लिखी वो किसी राजा के लिए नहीं लिखी, श्रृंगार के लिए नहीं लिखी। देखो इसके अंत में क्या लिखा है :-

ना काहू की प्रेरना, ना काहू की आस।
अपनी मति तीखी करन, बरन्यौ बरन-विलास।।

किसी की प्रेरणा से यह ग्रंथ नहीं लिखा है। किसी की आशा या कुछ पाने की आशा से भी यह रचना नहीं की है और मैंने सिर्फ अपने ज्ञान, बुद्धि, परिणति, अपने जीवन को शुद्ध बनाने के लिए मैंने ये दोहे लिखे हैं। कितनी निस्वार्थ भावना से, कितने अच्छे मन से लिखे हैं। इसमें जो सात सौ दोहे हैं ना उनके आपको एक- एक दोहा बहुत मर्म का है। एक एक दोहे पर बहुत चर्चा कर सकते हैं लेकिन आपको याद रखना हो ये सात सौ दोहे क्या हैं ? शुरू के ‘सौ दोहे’ तो इस बात के लिए हैं उनका नाम है देवानुराग मतलब सच्चे देव का क्या स्वरूप होता है इस पर ‘सौ दोहे’ लिखे हैं फिर ‘दो सौ दोहे’ सुभाषित लिखे हैं नीति के दोहे फिर ‘दो सौ दोहों’ में जीवन को सुधारने का उपदेश है। सात व्यसन, क्या क्या करना, कैसे करना। ‘दो सौ दोहे’ वैराग्य के हैं।

एक चरन हू नित पढ़ै, तौ काटै अग्यान।
पनिहारी की लेज सौं सहज कटै पाखान।।१०८

एक श्लोक है : -
श्लोकेन वा तदर्देन पादेनैकाक्षरैण वा ।
अबन्ध्यंदिवसम् कुर्यात् ज्ञानाध्ययन कर्मभिः।।

चाहे आप आधा श्लोक पढ़ो लेकिन रोज पढ़ो। गरम तबा हो गरम गरम उस पर एक बूँद डालने से क्या होता है। वो बूँद और जल जाएगी। लेकिन हमारे आचार्यों ने उत्तर दिया-
अगर वो एक ही बूँद बार बार, लगातार डलती रहेगी। तबा गरम है और उस पर एक बूँद, एक बूँद, एक बूँद, एक बूँद लगातार गिरेगी तो, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, भेद विज्ञानं इदं अविच्छिन्न धारया। आप अविच्छिन्न धारा से भेद विज्ञान की भावना करो तो वो गरम तबे को भी ठण्डा होना पड़ेगा। अंदर में जो मोह का संताप है वो गारण्टी से दूर होगा।
जैसे : पनिहारी पानी खींचती है तो कुएं का पत्थर कट जाता है। नित्य अभ्यास करो।
अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग से तीर्थंकर प्रकृति कर्म का बंध होता है।
शास्त्रों में लिखा :
कण्ठ गदैहि पाणी।
प्राण कण्ठ में आ जाएं तब भी मत रुको स्वाध्याय करते रहो। स्वाध्याय करते, करते प्राण पखेरू उड़ने चाहिए।

एक अनुभव प्रशंसा नाम का हेडिंग है। उस अनुभव प्रशंसा में क्या है?
इन्द्र, नरेन्द्र, फणेन्द्र सब तीन काल में होय।
एक पलक अनुभव जितो तिनको सुख नहिं होय।।
तीन काल के माने जितने इन्द्र, नरेन्द्र, फणेन्द्र भूतकाल में हो चुके, अभी हैं और भविष्य में होंगे वो सब इकट्ठे करो और उनका सारा सुख इकट्ठा करो लेकिन आत्मानुभूति का जो एक पल का सुख है वो सुख उस सुख से भी कई ज्यादा है।
व्यावहारिक दोहे भी कुछ बहुत अच्छे हैं।

आगत उठ आदर करै बोले मीठे बैल ।
जातै हिल मिल बैठना जिय पावै अति चैल।।

भला बुरा लखिए नहीं आए अपने द्वार।
मधुर बोल जस लीजिए नातर अयस तयार‌।।

कहां जाना, किसके पास बैठना, कोई घर आया हो तो क्या करना। कोई अपने घर आया हो तो वो अतिथि है। कषाय रखना नहीं।

पंथ सनातन चालिए कहिए हित मित बैन।
अपना इष्ट न छोड़िए सहज ए चैन अचैन।।

शांति से जीवन यापन करो। इनसे पूछा आपके इस शास्त्र का सार बताओ :

भूख सहो दारिद सहो सहो लोक अपकार।
निन्द कार्य तुम मत करो यहै ग्रंथ को सार।।

चाहे भूखा रहना पड़ जाए। चाहे दरिद्र रहना पड़ जाए। लोक का अपमान सहना पड़ जाए। लेकिन निन्द कार्य मत करना यही ग्रंथ का सार है।

सम्पत्ति के सब ही हितु विपदा में सब दूर।
सूखो सरपंखी तजे सेबै जलतै पूर।।

ये आदमी दुनियां के मोह में बहुत फंसा हुआ है। इसे पता नहीं है कि इसको नहीं वैभव, संपत्ति को प्रेम करते हैं। स्वार्थ को प्रेम करते हैं। विपत्ति में कोई काम नहीं आता। सूखे सरोवर पर पक्षी नहीं बैठते हैं। पानी भरा हो तो बैठते हैं।

निशि में दीपक चन्द्रमा दिन में दीपक सूर।
सर्व लोक दीपक धरम कुल दीपक सुत भूर।।

रात में चन्द्रमा दीपक है। दिन में सूर्य दीपक है और जीवन के लिए धर्म दीपक है।

मिष्ट वचन धन दानतैं सुखी होत है लोक।
सम्यक्ज्ञान प्रमाण सुनै रीझत पण्डित लोग।।

काल करादै मित्रता…

समाप्त।

आदरणीय वीरसागर जी भाईसाहब के प्रवचन से संकलित।
जैन हीरोज सीरीज

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