ब्रह्मचर्य द्वादशी | Brahmacharya Dwadashi

ब्रह्मचर्य की अद्भुत महिमा, आज बताऊं भली-भली,
ब्रह्मचर्य बिन जीवन निष्फल, बात कहूं मैं खरी-खरी।
निज सुख शांति निज में ही है, बाहर कहीं न पाओगे,
व्यर्थ भ्रमे हो और भ्रमोगे, समय चूक पछताओगे।
भोगों में तो फंस कर भाई, तुमने भारी विपद भरी |ब्रह्मचर्य.|

जैसे बड़ी-बड़ी नदियों पर, बांध बंधे देखे होंगे,
सोचो बांध टूट जावे तो, क्यों नहीं नगर नष्ट होंगे।
ब्रह्मचर्य का बांध टूटने से, बरबादी घड़ी-घड़ी |ब्रह्मचर्य.|

भोगों का घेरा ऐसा है बाहर वाले ललचावें,
फँसने वाले भी पछतावे, सुख नहीं कोई पावे।
धोखे में आवे नहीं ज्ञानी शुद्धातम की प्रीति धरी |ब्रह्मचर्य.|

पहले तो मिलना ही दुर्लभ, मिल जावें तो भोग कठिन,
भोगों से तृष्णा बढ़ती, इनसे होना तृप्ति कठिन।
पाप कमावें धर्म गमावें, घूमें भव की गली-गली |ब्रह्मचर्य.|

बत्ती तेल प्रकाश नाश ज्यों, दीपक धुँआ उगलता है,
रत्नत्रय को नाश मूढ़ भोगों में फँसकर हंसता है।
सन्निपात का ही यह हंसना, सन्मुख जिसके मौत खड़ी |ब्रह्मचर्य.|

सर्वव्रतों में चक्रवर्ती अरु, सब धर्मों में सार कहा,
अनुपम महिमा ब्रह्मचर्य की, शिवमारग शिव रूप अहा।
ब्रह्मचर्य धारी ज्ञानी के, निजानंद की झरे झड़ी |ब्रह्मचर्य.|

पर स्री संग त्याग मात्र से ब्रह्मचर्य नहीं होता है,
पंचेन्द्रिय के विषय छूट कर, निज में होय लीनता है।
अतीचार जहां लगे न कोई ब्रह्म भावना घड़ी-घड़ी |ब्रह्मचर्य.|

सर्व कषायें अब्रह्म जानो, राग कुशील कहा दुखकार,
सर्व विकारों का उत्पादक, पर दृष्टि ही महा विकार।
द्रव्य दृष्टि शुद्धात्म लीनता, ब्रह्मचर्य सुखकार यही |ब्रह्मचर्य.|

सबसे पहले तत्त्व जानकर, स्व पर भेद विज्ञान करो,
निजानन्द का अनुभव करके, भोगों में सुख बुद्धि तजो।
कोमल पौधे की रक्षा हित, शील बाढ़ नौ करो खड़ी |ब्रह्मचर्य.|

समता रस से उसे सींचना, सादा जीवन तत्त्व विचार,
सत्संगति अरु ब्रह्म भावना, लगे नहिं किंचित अतिचार।
कमजोरी किंचित नहीं लाना, बाधाएं हों बड़ी-बड़ी |ब्रह्मचर्य.|

मर्यादा का करें उल्लंघन, जग में भी संकट पावे,
निज मर्यादा में आते ही, संकट सब ही मिट जावे।
निज स्वभाव सीमा में आओ, पाओ अविचल मुक्ति मही |ब्रह्मचर्य.|

चिंता छोड़ो स्वाश्रय से ही सर्व विकल्प नशायेंगे,
कर्म छोड़ खुद ही भागेंगे, गुण अनन्त प्रगटायेंगे।
आत्मन् निज में ही रम जाओ, आई मंगल आज घड़ी ।
ब्रह्मचर्य की अद्भुत महिमा, आज बताऊं भली-भली,
ब्रह्मचर्य बिन जीवन निष्फल, बात कहूं मैं खरी-खरी।

रचयिता:- ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

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