Blood donation in jainism

मुझे लगता है कि अगर हम अपने सबसे करीबी व्यक्ति, (मान लीजिए अपने पिता या पुत्र, या ओर कोई) के जीवन को बचाने के लिए अगर blood लेते है या देते हैं , तो फिर किसी ओर जीव की आवश्यकता पड़ने पर भी देना चाहिए।
मुझे लगता है हमे दोनों परिस्थितियो में एक समान रहना चाहिए।

This is my personal view.

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Ofcourse every jain can donate blood jinagam never deny to donate , if we can save the life of other human being we should always go ahead without any thought ,make sure u should be free from diseases by which other one do not suffer .in this scientific age so many techniques has been invented by which blood cell kept live by preservation .jainagam says ""sukhi rahe sab jeev jagat mein "

Blood donation is not a sin as far as I know. Everything we humans do involves some amount of violence. The only thing to keep in mind while doing something good is that the violence shouldn’t exceed the amount of good work being done ie. violence must be kept in check and should be aimed to keep at lowest levels.

Regarding celibacy, not everyone will become a celibate all at once. Even bhavya jeev can run a normal family and fulfill the sexual gratification for the purpose of the progression of Jain Dharma. That isn’t denied anywhere in the Aagam. Even Tirthankar bhagwaan used to have family. Eventually bhavya souls will automatically achieve celibacy due to the fact that they are bound to achieve Nirvana and liberation sometime in the future.

There are many abhavya souls as well who might be practicing celibacy even though it might not lead them to Moksha.

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जहाँ तक मैं अपने अध्ययन की बात करूं तो अभी तक किसी भी आगम/जिनवाणी में रक्तदान के संबंध में अनुमति अथवा निषेध जैसी विषय विशेष की चर्चा पढ़ने में नहीं आयी है। (यदि किसी ने इस विषय मे आगम में पढ़ा हो तो जरूर सूचित करें )
इसलिए इस संबंध में न ही तो संपूर्णतया निषेध ही उचित है और न ही अनुमति।

इसका निर्णय स्वविवेक के आधार पर ही संभव है।
चूंकि रक्त में निरंतर जीवों की उत्पत्ति होती है यह बात बिल्कुल सही है, और निश्चित तौर पर रक्तदान में भी किसी न किसी रूप में जीवों की हिंसा होती ही होगी।
किन्तु, ऐसा जानकर किसी को भी रक्तदान नहीं करना चाहिए ऐसा सर्वथा कथन भी उचित प्रतीत नहीं होता, कारण कि यदि मात्र हिंसा की दृष्टि से इसका निषेध करेंगे तो अन्य लौकिक कार्य करने से भी स्वयं को रोकना होगा, जैसे जिनमंदिर का निर्माण, भूमि की खुदाई, सिंचाई हेतु जल, जिस सामग्री का प्रयोग साज सज्जा हेतु किया जा रहा है उसमें जीवों की उत्पत्ति जैसे पुताई के कलर में sammurchan जीवों की उत्पत्ति, जिस सामग्री से निर्माण किया गया उसकी उत्पत्ति में होने वाली जीव हिंसा इत्यादि।
इस प्रकार अन्य भी समझना। यदि ऐसा हुआ तो जीवनयापन असंभव होगा।

Blood donation की प्रक्रिया भूमिकानुसार यदि घटित की जाए तो समाधान संभव प्रतीत होता है। क्योंकि श्रावक की भूमिका में दया और शुभ भाव की मुख्यता है और मुनि की भूमिका में शुद्ध भाव की, इसके अनुसार श्रावक का रक्तदान करना किसी हद्द तक उचित है, किन्तु ऊपर की भूमिका में अनुचित।

ध्यान इस बात का भी रखना कि हमारा दान किया हुआ रक्त किस जीव के हित मे प्रयोग किया गया है? यदि कोई सधर्मी अथवा मंद परिणामी जीव हो तो उसे दान करना एक नैतिक कर्तव्य है, लेकिन यदि कोई शराबी इत्यादि हो तो वहाँ दान करना अनुचित है।

फिर जिनागम में इसके संबंध में क्या समझा जाये ?
जिनागम में कुछ बातें इंगित भी की जाती हैं, पाप कार्य की अनुमति जिनागम कभी नहीं देता, किन्तु भूमिकानुसार जो नियम हैं उसके आधार से ऐसा करने में दोष तो है किंतु दया के भाव मुख्य है।

रही बात जनसंख्या,संतान उत्पत्ति आदि की तो उसके संबंध में चर्चा का कोई औचित्य नहीं है, प्राकृतिक प्रक्रिया सहज है और रहेगी।

हाँ, मृत्यु के बाद शरीर का क्या होना चाहिए तो इस संबंध में शरीर को जलाने का विधान आगामी जीवउत्पत्ति तथा उससे होने वाली हिंसा से बचने के लिए है। अतः इस संबंध में भी कोई विवाद उचित प्रतीत नहीं होता।

पुरुषार्थ और कर्तवाद इत्यादि की चर्चा इस विषय के मध्य मुझे अपेक्षित नहीं लगती, इसलिए इस संबंध में भी मौन।

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On “I heard somewhere that परम्परा तो गढ़ने की ही हैं, जलाने की परम्परा is outcourced from Hinduism in Mugal era”
No, पहले से ही जलाने की परंपरा है।
क्योंकि सभी तीर्थंकर को निर्वाण के बाद देवों द्वारा जलाया जाता है और उनकी दाढ़ को देवलोक में ले जाके उसकी पूजा करते है।

परंतु अहिंसा की दृष्टि से मृत्यु के बाद शरीर में शरीर में अनेक जीव उत्पन्न हो जाते हैं।

What is the exact word used for this act?

तीर्थंकर का निर्माण होने पर उनके नख और केश को छोड़कर, पूरा शरीर गायब हो जाता है तभी देव मायावी शरीर की रचना कर देते है मोक्ष कल्याणक के पश्चात अग्नि देव उस मायावी शरीर को भस्म कर देते है, ऐसा कथन तो है ।

पर “दाढ़ को देवलोक में ले जाके उसकी पूजा करते है” ??

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जी दाढ़ ले के वो देवलोक में एक डाबड़ा में रखते है और हररोज उसकी पूजा करते है।

जीवो की उत्पत्ति थोड़े समय के बाद होती रहेगी और जलने की बजाय जमीन में डाटेंगे तो जब तक सरीर नाश न होगा तब तक नए जीव उत्पन्न होते रहेंगे।

I think word is अग्निसंस्कार. Need to confirm it.

Any root scripture reference?

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Hemchandracharya rachit Trisasthishalaka purush me aadinath charitra me ata he, aur sabhi tirthankar ke charitra me bhi rahega.

bhai, dadi ki pooja kese hogi, jab dev swayam videh kshetra jakar , pooja kr sakte he, toh fir ye mjhe mithyatv lagta he.
I think it’s from shvetambar parmpara.

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