भाई आपन पाप कमाये आये। Bhai Aapan Paap Kamaye Aaye

राग सोरठ

भाई! आपन पाप कमाये आये, क्यों न परीसह सहिये ॥ टेक ॥
आगैं नूतन बंध रुकत है, पूरब करमनि दहिये ॥ भाई ॥
न्यौति जिमाया जिनको चहिये,घर आये नहिं गहिये ।
परवश तो सब जीव सहत हैं, स्ववश सहँ धनि कहिये ॥ १ ॥

ऋणके दाम भेज घर दीजे, माँगैं क्यों ले रहिये ।
कोटिजनमतपदुर्लभ जे पद, ते पद सहज हिं लहिये ।। २ ।।

दोष दुष्ट धन लेहु लालची, प्रान जास।
बात कहूं चितमें जब आवै, तुम अन्तर की जानौं।
दीनदयाल निकाल जगततैं ‘द्यानत’ दास पिछानौं ॥ ३ ॥

अर्थ- अरे भाई! तुमने स्वयं ने पाप उपार्जित किए हैं, तो उसका फल कैसे क्यों - नहीं भुगतोगे सहोगे? आगे किए जाने वाले नए बंध की श्रृंखला को रोको और - पूर्व में जो कर्म किए हैं उनकी निर्जराकर उन्हें भी समाप्त करो।

जिन कर्मों को आमंत्रित किया, बुलाया, उनका पोषण किया, वे घर आ गए हैं अर्थात् उदय में आ गये हैं, प्रकट हो गये हैं, अब उन्हें पकड़ कर मत रखिए। कर्मों के वश होकर सभी फल भोगते हैं, परन्तु जो उनकी स्वयं उदीरणा कर निर्जरा करते हैं, वे धन्य हैं, अर्थात् तप से उनको समय से पूर्व उदय में लाकर नष्ट कर देते हैं वे धन्य हैं।

जिस किसी से भी जो कर्ज लिया है उसको वापस उसके घर जाकर दीजिए, उसे रखकर कर्ज न बनाए रखें। माँगी हुई चीज को क्यों ग्रहण किये रहते हो ? इस प्रकार कर्मरूपी ऋण को चुकाकर उसे नाश करें, उससे मुक्त होवें । जो करोड़ों जन्मों से दुर्लभ हो रहा है वह मोक्ष पद है, उसे इस प्रकार सहज ही में प्राप्त कीजिए।
यह कर्मरूपी दुष्ट धन का लालच उत्पन्न करता है, दोष उत्पन्न करता है। जब वह चित में आता है तो प्राणों का नाश करता है। आप तो अन्तर की सब बाल जानते हो।
हे दीनदयाल ! द्यानतराय जी कहते हैं कि मुझे, अपने दास को पहचान कर जगत में बाहर निकालो अर्थात् मुक्ति प्रदान करो।

रचयिता: पंडित श्री द्यानतराय जी
सोर्स: द्यानत भजन सौरभ

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