बेला अमृत भरा, वक्त क्यों खो रहा
आलसी सो रहा, बन अभागा
सारे साथी जगे मैं ना जागा
बड़े मुश्किल से नर तन ये पाया,
पाकर विषयों में यूं ही लगाया,
हंस का रूप था, पानी गंदला पिया,
बनके कागा…
सारे साथी जगे मैं ना जागा
सारे ग्रंथों को देखा न भाला,
सर से ऋषियों का ऋण न उतारा
सौदा घाटे का कर, हाथ माथे पर धर
रोवन लागा
सारे साथी जगे मैं ना जागा
झोलियाँ भर रहे भाग्य वाले
लाखों पतितों ने जीवन संभाले
ज्ञान रस में पगा, आत्मरंग में रंगा
बन विरागा
सारे साथी जगे मैं ना जागा
आत्म ध्यान लगा, कर्म शत्रु भगा
मुक्ति पाजा
सारे साथी जगे मैं ना जागा
रचयिता: अज्ञात
स्रोत : ज्ञाता जी सिंघई