(तर्ज : दरबार तुम्हारा मनहर है…)
अविकारी शुद्ध स्वरूप प्रभो, दर्शन कर परमानंद हुआ।
हे अनंत चतुष्टय रूप प्रभो! दर्शन कर परमानंद हुआ। टेक।।
अद्भुत नासा दृष्टि तुम्हारी, सौम्य दशा भविजन मनहारी।
देखत जगत असार लगे प्रभु, जाग्रत भेद विज्ञान हुआ।।1।।
तुम दिव्यध्वनि में दिव्य तत्त्व, दर्शाया मंगलरूप सत्त्व।
सुनकर तिर्यञ्चों को भी प्रभु, सम्यक् शुद्धातम बोध हुआ।2।।
इन्द्रादि नमें तुम चरणों में प्रभु, आप मगन है अपने में।
मैं भी निज में ही रम जाऊँ, प्रभु सहज ही जाननहार हुआ।3।।
चरणों में शीश नवाता हूँ, प्रभु तत्त्व भावना भाता हूँ।
निर्मोह हुआ, निष्काम हुआ, निर्द्वन्द हुआ निर्मान हुआ।4।।
Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’