श्री चन्द्रप्रभ स्तवन
अशरण जग में चन्द्रनाथ जिन, साँचे शरण तुम्हीं हो।
भवसागर से पार लगाओ, तारण तरण तुम्हीं हो।।टेक॥
दर्शन पाकर अहो जिनेश्वर, मन में अति उल्लास हुआ।
देहादिक से भिन्न आत्मा, अन्तर में प्रत्यक्ष हुआ ।।
आराधन में लगी लगन प्रभु, परमादर्श तुम्हीं हो ।। भवसागर… ।।१।।
अद्भुत प्रभुता झलक रही है, निरखत हुआ निहाल मैं । रत्नत्रय की निधियाँ बरसे, हुआ सु मालामाल मैं।।
समतामय ही जीवन होवे, प्रभु अवलम्ब तुम्हीं हो ।। भवसागर… ।।२।।
मोह न आवे क्षोभ न आवे, ज्ञातामात्र रहूँ मैं ।
अविरल ध्याऊँ चित्स्वरूप मैं, अक्षय सौख्य लहूँ मैं।। हो निष्काम वंदना स्वामी, मेरे साथ तुम्हीं हो ।। भवसागर… ।।३।।
रचयिता- ब्र.रवींद्र जी ‘आत्मन’