अरहंत सिद्धाचार्य श्री | Arhant Siddhaachaarya Shree

धर्म शतक

मङ्गलाचरण

[ गीता छंद ]

अरहंत सिद्धाचार्य श्री, उवझाय साधु प्रणाम करि ।
जिनवृष जिनालय जैनबिम्ब सरस्वती को हृदय धरि ।।
ये ही परम मंगल जगोत्तम, यही शरण सहाय हैं ।
येही भवोदधि तरण तारण, भव्य जन सुखदाय हैं ॥ १ ॥

दोहा

वृषभादिक चौबीस जिन, अघहर मंगल कार |
मन वच काय संभारिकै, प्रणमूँ बारम्बार ॥ २ ॥

लघुता (सवैय्या ३१)

जैसे कोई आँधो नर तालियाँ बजाय करि,
चाहत है चंचल बटेर को पकरना ।
गूंगा नर भरे स्वर पंगु नर चढ़ै, गिरि,
बिना करवाला चाहै सागर को तरना ॥
जैसे शशि प्रतिबिम्ब लखिकै गगन माँहि,
पकड़न हेतु शिशु चाहत उछरना ।
तैसे मैं कवित्त करिबे को कियो उद्यम ये,
लेकर जिनेन्द्र देव ही का एक शरना ॥ ३ ॥

जेते समै माँहि पद वाक्य शब्द जोड़नेका,
करेंगे प्रयत्न तौलौं रहै शुभ वासना ।
जगत के ख्याल विकलप जाल छूटि जांय,
धर्म के कथन सेती चित्त हो उदास ना ।।
फेरि इस पुस्तक को पढ़ेंगे अनेक नर,
उनके हृदै में कछु होय भाव भासना ।
ऐसै निज पर हित हेतु यह रचे हम,
लोभ मान प्रभुता की किश्चित हू आस ना ॥ ४ ॥

जिनेन्द्र देव प्रशंसा

विश्व की विभूति को विनश्वर विचारि जिन,
देह गेह सों सनेह त्यागि तप धारा है ।
धाराधर सम पाप पुञ्ज को प्रभंजन ह्वै,
करम करिन्द को मृगिन्द बनि मारा है ||
काम क्रोध मोह मद लोभ क्षोभ मान छल,
सकल उपाधि को समाधि से बिडारा है ।
पाय बोध केवल सुबोधि दिये जगजन,
ऐसे जिन देव को नमो नमो हमारा है ॥ ५ ॥

पगनि तें चलिबेकी चाह कछु रही नांहि,
तातैं पदमासन लगायो भू मसान मैं ।
करनि तें करि बो न काज कछु बाकी रह्यो,
तातैं कर पर कर करि बैठे ध्यान में ||
नासिका की कोर ओर नैनन की दृष्टि जोर,
लागे सब छोर निज आतम विधान में ।
कानन में कानन सौं सुनत न नाद कछु,
लीन जिन राज स्वातमोपलब्धि-ज्ञान में ॥ ६ ॥

वीरन में वीर है प्रसिद्ध काम देव वीर,
जाने जग वीरों को अधीर करि डारा है ।
ब्रह्मा और विष्णु शिव शङ्कर गणेश शेष,
माधव महेश सुर सुरेश पछारा है ॥
हलधर चक्रधर गदा औ त्रिशूलधर,
पुष्प शर वालेने सभी को ललकारा है।
विश्वामित्र पारासर आदि ऋषि वस किये,
ऐसा काम देव जिन देव ही ने मारा है ॥ ७ ॥

जाके ज्ञान मांहि तिहुंलोक के पदारथ की,
भूत भावी वर्तमान परियाय झलकत ।
जामैं क्षुधा तृषा जन्म मर्ण राग द्वेष नाहिं,
परम पवित्र वीतराग पन छलकत है ॥
जाके उपदेश में विरोध नाहिं आदि अन्त,
तारक भवोदधि करत जगजन हित ।
वही परमातम परम निरग्रन्थ देव,
ताको ध्यान करत मुकति मग दरसत ॥ ८॥

दशधर्म: उत्तम क्षमा

क्षमा और शांति में सुखी रहै सदैव जीव,
क्रोध में न एक पल रहै सुख चैन से ।
आवत ही क्रोध अङ्ग अङ्ग से पसेव गिरै,
होठ डसै, दाँत घिसै, आग झरे नैन से ॥
औरन को मारै, आपनों शरीर कूटि डारै,
नाक भौं चढ़ाय कुराफात बकै बैन से ।
ज्ञान ध्यान भूलि जात, आपा पर करै घात,
ऐसे रिपु क्रोध को भगावो क्षमा सैन से ॥ ९ ॥

उत्तम मार्दव

ऊँच कुल जाति बल धनैश्वर्य प्रभुता का,
पुन्य उदे पाकर क्या मान करे बावरे ।
आपको महान जानि औरन कौ तुच्छ मानि,
पीकै मद मद्य धरै भूमि पै न पाव रे ||
बड़े बड़े धनी गुनी चक्रवर्ति शहंशाह,
ऊँचे चढ़ि गिरे देखि खोलि तू किताब रे ।
तातें अब छोड़ि मान सभी को समान जान,
सर्व धर्म में प्रधान मार्दव कौ भावरे ॥ १० ॥

उत्तम आर्जव

कपट कटार से गरीबन का गला काटि,
पाप की कमाई कहौ कै जनम खायगा ।
धोखे छल छिद्र ब्लैक मारकीट से घसीट,
लाख कोड़ि जोड़ि जोड़ि साथ न लेजायगा ||
हाकिम आजाय खूब रिश्वत हू खाय देय,
जेल में पठाय उम्र सारी दुख पायगा ।
तातें छल छिद्र छोड़ि कपट कटार तोड़ि,
आर्जव से प्रीति जोड़ि धरमी कहलायगा ||११||

उत्तम सत्य

बड़ी नीठि नीठि से मिला है नर जन्म तुझे,
झूंठ बोलि कै खराब क्यों करै जबान रे ।
कर्कस कठोर दुष्ट झूंठ बैन औरन के,
हृदै को विदार देत बान के समान रे ॥
पुरुष सत्य वादी का आदर जहान करै,
झूंठे पुरुषों का कहीं होता नहिं मान रे ।
‘मक्खन’ सा नर्म मिष्ट शिष्ट सत्य बैन बोलि,
वशीकरण मंत्र यही कहैं भगवान रे ॥ १२ ॥

उत्तम शौच

बावड़ी तलाच कूप सागर में स्नान किये,
होत नाहिं शौच गंग यमुना में न्हाने से ।
मथुरा बृन्दावन नहिं काशी में शौच होत,
शौच नाहिं मन्दिर शिवालय में जाने से ॥
राम राम जपने से पञ्च अग्नि तपने से,
होत नाहिं शौच भाल चंदन लगाने से ।
लालच की कीच धोय लेकर सन्तोष तोय,
शौच धर्म होय राग द्वेष के मिटाने से || १३ ||

उत्तम संयम

अश्व तुल्य चञ्चल मनेन्द्रिय पै हो सवार,
सावधान होकै मत छोड़ना लगाम को।
नातर ये पाप गर्त माँहि तोहि डारि जांहि,
धर्म खेत खाय जांय मूल से तमाम को ॥
छोड़िकै अभक्षण को छहौ काय रक्षा करि,
शिक्षण ले ग्रन्थन से जपो आत्म राम को ।
बारे व्रत पालि, रत्न संयम संभालि, विषै,
चोरको निकालि, चलौ निश्चै शिवधाम को ॥१४॥

उत्तम तप

कर्म शैल तोड़न को वज्र के समान तप,
मोह अन्धकार के विनाशन को भान है ।
मिथ्या घनघोर घटा फारन को मारुत है,
पाप पुंज जारन को अग्नि के समान है ||
प्रोषधादि द्वादश प्रकार बाह्य अभ्यन्तर,
चित्त वृत्ति रोकि करौ होय पूर्ण ज्ञान है ।
शैल बन गुफा नदी किनारे ध्यानस्थ होय,
तपश्चरण किये पास वैनिरवान है ॥ १५ ॥

उत्तम त्याग

दीन हीन दुखियों को दया कर दान देहु,
गुणियों को दान देहु मोद को बढ़ाय कै।
द्रव्य हीन धर्मिन को गुप्त द्रव्य दान देहु,
मुनियों को दान देहु भक्ति चित्त लायकै ॥
औषध आहार अभै शास्त्र दान चार मुख्य,
शक्ति अनुसार देहु संपति कमाय कै ।
दान ही से ऋिद्धि-सिद्धि, दान ही से होय वृद्धि,
देहु दान ‘मक्खन’ मनुष्य जन्म पाय कै ॥ १६ ॥

उत्तम आकिश्चन

अम्बर को छोड़ि कै निरम्बर मुनीश हुये,
सम्बर को धारि के दिगम्बर कहाये हैं ।
होय पर्म हंस कर्म वंश को मिटाय रहे,
आतमीक धर्म में निशंक होय धाये हैं॥
चार बीस ग्रन्थ त्यागि लगे ज्ञान मंथन में,
वे ही निरग्रन्थ संत ग्रन्थन मैं गाये हैं।
आस फाँस छेदत जे कर्म शैल भेदत जे,
आकिञ्चन धारी मुनि सभी को सुहाये हैं || १७ ||

उत्तम ब्रह्मचर्य

ब्रह्म आतमा मै ब्रह्मचारी सदा काल रमै,
चित्त मै न होय कभी काम देव वासना।
अप्सरा समान खड़ी देखि दिव्य नारियों को,
किञ्चित् हू आवै जिन के विकार पास ना ||
रात भर सुदर्शन से रानी ने रारि करी,
निर्विकार सेठि किया ब्रह्मचर्य नास ना।
ब्रह्मचारियों पै पड़ैं संकट अनेक आन,
धैर्य से सहन करें होत हैं हतास ना ॥ १८ ॥

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बहुत सुंदर कृति है ,
साझा करने के लिए धन्यवाद:):pray: